वक्त हुआ।

वक्त हुआ,
वक्त को छोड़े मुझे।
मंजिलें गुम हो गई,
अब तो बस,
हादसे ही,
पालते हैं मुझे।

कभी ये हुआ,
कभी वो हुआ।
कुछ नां कुछ,
हर पल हुआ।
जो कुछ नां हुआ,
तो ये हुआ।
बस कम नहीं,
मेरा ग़म हुआ।

कभी अर्श दिया,
कभी फर्श  दिया।
ओ जिंदगी,
हैरान हूं,
तूने कहां कहां का,
का सफर दिया।

आकाश के साथ,
सितारे दिये।
ज़मीं के साथ,
अंगारे चिता के दिये।
नां खुशी की कोई उम्र  दी,
नां दुख का कोई अंत दिया।

तूने जो भी दिया,
दिल भर के दिया।
खुशी भी तेरी,
दर्द  भी तेरा।
बस झेलना ही,
था काम मेरा।

मैं नाज़ुक,
मेरा मिज़ाज़ नाज़ुक।
मेरे नाज़ुक दिल को,
तूने रौंद दिया।

जिंदगी है,
एक सिलसिला,
एक उतार चढ़ाव का।
पूछता है वासल देवेन्द्र,
फिर क्यों खेला खेल तूने,
जिंदगी और मौत का।

बहुत ज़ालिम है तूं वक्त,
नां सब्र  है तुझमें,
नां दया है नां  है करुणा।
ढूंढता रहता है हर पल
कब किसको है,
फ़ना करना।

हंसता है तूं हर पल,
हर किसी के ग़म पर।
होगा दफ़न तूं भी,
बद दुआंओं के
कफ़न पर।

वक्त हुआ,
वक्त को छोड़े मुझे।
अब तो बस,
हादसे ही,
पालते हैं मुझे।
******







बदल गया रिश्ता कृष्णा से।


KINDLY READ. .. YOU WILL LIKE. LORD WANTS ME TO HAVE A NEW PERSPECTIVE TO LIFE.

बदल गया रिश्ता कृष्णा से।
बदल गया रिश्ता कृष्णा से…. Written by वासल देवेन्द्र.. D.K.Vasal
बदल गया रिश्ता कृष्णा से।

तूं भी तो कुछ,
चुनता होगा।
जैसे तूने,
चुना विदुर को।
अभिमन्यु को,
शिष्य चुना।
तूने ही तो,
चुना अर्जुन को।

सुदामा को,
तूने मित्र चुना।
ग्वालों को,
सखा तूने ही चुना।
देवकी वासुदेव,
को माता पिता।
और  चुना,
बलराम को,
भाई बड़ा।

तूं  राजा,
सारी सृष्टि का।
गुलाम भी तो,
चाहिए होगा।
चुन ले तूं मुझे,
गुलाम अपना।
है वासल देवेन्द्र, 
तेरे चरण पड़ा।

बदल दे मेरा,
रिश्ता तुझसे।
मैं कहां हूं,
तेरा भक्त बड़ा।
तूं मालिक मैं,
तेरा गुलाम।
तूं उपर,
मैं नीचे खड़ा।

शिकायत थी मेरी,
तब तक तुझ से।
जब तक था,
ऐसा रिश्ता तुझ से।
तूं भगवान,
मैं भक्त तेरा,

अब तूं मालिक,
और मैं गुलाम।
कहां शिकायत,
कर सकता गुलाम।

पूछे मैंने,
कई सवाल पर,
नां मिला,
मुझे उत्तर कोई।
बाद में आया,
समझ में मेरी,
पाना है,
अगर तुझे तो।
भक्त होना,
है नहीं जरूरी।
उससे अच्छा है,
रहो गुलाम,
गुलाम पर,
रहती नज़र तुम्हारी।

छोड़ो बात,
फर्जी भक्तों की।
जब तक,
नां हो इच्छा तेरी।
नहीं बन सकता,
कोई  तेरा गुलाम।
और नां कर सकता,
गुलामी तेरी।

गुलाम की नहीं,
होती कोई इच्छा।
नां होती,
उसकी कोई चाह।
नहीं गुलाम
कह सकता,
कभी भी,
हे कृष्णा,
तूं मालिक मेरा,
और मैं कृष्णा
हूं तेरा गुलाम।

ऐसा कुछ भी,
नहीं सृष्टि में।
गुलाम जिसे
कह सके वो मेरा।

नहीं बनाना,
मुझे सेवक अपना।
सेवक की होती,
है कुछ तो चाह।
गुलाम नहीं,
कर सकता है,
सेवा करने की भी चाह।

भक्त को रहती,
भक्ति की चाह।
और सेवक को, 
सेवा की चाह।
गुलाम की नहीं,
कोई अपनी चाह।
उसको बस,
सुनना आदेश।
जो भी हो,
मालिक का संदेश।

गुलाम के नहीं होते,
दिल और दिमाग।
नां होती,
उसकी मुस्कान।
उस को सुनना
बस आदेश।
उसके होते हैं
बस कान।

इसीलिए है,
प्रार्थना मेरी।
तूं बना लें,
मुझे अपना गुलाम।
जब तक चलें,
सांसें मेरी।
बस बना रहूं,
तेरा गुलाम।
नां मैं कुछ मांगू,
नां कुछ तूं दे।
बस तूं मालिक,
और मैं गुलाम।

बदल दे मेरा,
रिश्ता  तुझ से।
है वासल देवेन्द्र की,
आखिरी फरियाद।
*****

वक्त के हाथ नहीं होते।


वक्त के हाथ नहीं होते।.. Written by वासल देवेन्द्र….D.K. Vasal.

वक्त के हाथ नहीं होते,
पर तमाचा भारी होता है।
वो फर्क नही करता किसी में,
कोई सोया है यां जागा है।

कब किसी को मार दे तमाचा,
कोई जान नही पाता है।
वक्त के हाथ नही होते,
पर तमाचा भारी होता है।

मैंने भी खाया वो तमाचा,
होश उड़ा  के रख दिए।
ज़िंदा हूं यां मरा हूं मैं,
ये भी समझ नां पाया मैं।

ये वक्त वक्त की बात है,
मैंने भी सुना ये सब।
ऐसा भी होता है वक्त,
कभी सोच नां पाया मैं।

वक्त खुद मुक्त है वक्त से,
पर  सबको पकड़ कर रखता है।
कब किसी का छोड़ दे दामन,
कोई समझ नहीं पाया है।

युक्ति से चलता है वो,
देख सृष्टि को चारों ओर।
मारता है तमाचा वो ही,
मुक्ति भी देता है वो।
किस को क्या कब देगा वो,
कोई जान नां पाया है।

दबे पांव आता है वो,
चुपके से छा जाता है।
सन्नाटे की गली से आकर,
शोर छोड़ कर जाता है।

कुछ ज़ख़्म ऐसे भी होते हैं,
जो हमेशां ताज़ा रहते हैं।
वक्त के पास भी हर र्मज़ के
दवा दारु कहां होते हैं।

कहता है वासल देवेन्द्र,
नां करो भरोसा वक्त पर,
धोखा ये भी देता है।
वक्त वक्त की बात है,
हर पल सुनाई देता है।

अजीब ‘श’ है ये वक्त भी,
कभी धावों पे मरहम लगाता।
कभी ख़ुरेद पुराने ज़ख्मों को
फिर से हरा कर जाता है।

ज़ुबान नही होती उसकी,
पर संदेशा फिर भी देता है।
सन्नाटे की गली से आकर,
शोर छोड़ कर जाता है।

वक्त के हाथ नहीं होते,
पर तमाचा भारी होता है।
वो फर्क नहीं करता किसी में,
कोई सोया है यां जागा है।
*****

सपने में पहुंचा गोलोक।


सपने में पहुंचा गोलोक (कृष्ण लोक).. Written by..वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal

सपने में पहुंचा गोलोक,
प्यासे की जैसे,
बुझ गई प्यास,
ऐसे गीला हो गया कंठ।
हरि ने दिखा,
घर अपना सपने में,
कर दी मुझ पर,
कृपा अनन्त।

वैभव वैभव चारों ओर,
वैभव बस वैभव,
बस कुछ नां ओर।

चमक ऐसी आंखें चुंधियाई,
नां चांद नां सूरज नां कोई बिजली।
कर नां सकें हजार सूरज भी,
ऐसी वहां मैंने रोशनी पाई।

आलौकिक ऐसे, जैसे चमके दामिनी, (आकाश में बिजली)
हीरे मोती लगें सब फीके।
ऐसी माला हरि कंठ में पाई,
माला ऐसी हरि कंठ में पाई।

नाचे गाये हर कोई वहां,
सुंदर ऐसे जैसे मोर।
वहां जहां नां होती रात,
हर पल वहां बस भोर ही भोर।

रंग ही रंग थे चारों ओर,
नां लाल नां पीला नां नारंगी,
फिर भी था गोलोक सतरंगी।

स्वरमयी था सब वातावरण,
श्लोकों का था उच्चारण।
कानों में भर दे वो मधुमय,
बिना ढोलक बिना ताल मृदंग।

अनेक थे वहां पर एक ही रुप,
जैसे जल सब में गुलमिल जाये।
छोड़ कर वो अपना अस्तित्व,
ऐसे ही सब वहां थे कृष्णा
किसी में जैसे नां कोई तृष्णा।

जिसको भी देखूं लगे ईश्वर,
हर कोई था वहां पर कृष्णा।
हैरत की नज़रों से देखूं,
बड़ती जाये मेरी और भी तृष्णा।
उपर नीचे दांये बांये,
वहां तो बस कृष्णा ही कृष्णा।

अब बस हरि मिलने की आस,
नही वासल देवेन्द्र की,
और कोई आस।
दे कर अपने दर्शन मुझको,
अब हरि बुझायें मेरी प्यास।

आंख खुली तो देखा मैंने,
गोलोक जैसे बस गया भीतर।
हरि अनन्त हरि कृपा अनन्ता,
मैं हरि में हरि मेरे भीतर।
मैं हरि में हरि मेरे भीतर।
*****











मिट्टी

मिट्टी ..Written by वासल देवेन्द्र …D.K.VASAL
मिट्टी।

ख़ुदा ने बना कर,
हमको मिट्टी का।
कह दिया ,
फिर कान‌ में।

उड़ ले तूं मिट्टी,
कहां तक  जायेगी।
छूटा जो साथ हवा का,
फिर जमीं पर गिर जायेगी।

इन हवायों में ही है,
ज़िन्दगी सब की।
हों सांसें हमारी यां तुम्हारी,
समझ लेगी अगर,
तो ज़िंदा बच जायेगी,
वर्रणा बंजर कहलायेगी।

तेरा अपना,
कोई वाजूद नहीं है।
पहाड़ से निकली है,
ज़मीं है आशियां तेरा।
धरती से जुड़ी रहेगी,
तो वतन की कहलायेगी।
ज़ुरत की,
जो आंख में पड़ने की।
तो फिर धूल बन जायेगी।

गुमान नां कर,
तूं अपने पे।
तेरा आकार भी है,
हाथ कुम्हार के।
अकड़ के रहेगी,
तो चक्की बन जायेगी।
घुल मिल कर रहेगी,
तो मूरत,
ख़ुदा की बन जायगी।

अरे इन्सान,
तूं सिर्फ  खिलौना है,
मिट्टी का।
जो आजकल,
बाज़ार में भी नहीं बिकता।
तेरे दिल और दिमाग में,
हैं मर्जी ख़ुदा की।
तेरी जिंदगी है,
बस झोंका हवा का।

हवायें हमेशां,
जिंदगी नहीं देती।
कभी चलती हैं मंद मंद,
और बन कर कभी आंधी।
कभी देती हैं सांसें,
कभी घोंटती हैं दम।

मिट्टी है तूं मिट्टी रह,
मिटना है किस्मत तेरी।
कौन बदल पाया,
किस्मत जहां में,
तेरी हो यां हो मेरी।

***”

नां जाने क्यों।


Kindly, Kindly READ.
नां जाने क्यों।
Written by वासल देवेन्द्र ..
D.K.VASAL
नां जाने क्यों।
नां जाने क्यों,
सब कुछ,
अजीब सा दिखता है।
वक्त ख़ुद बेवक्त सा,
और जहां,
एक वहम सा दिखता है।

नां जाने क्यों,
दर्द ख़ुद दर्द में,
और सूरज,
ख़ुद को जलाता दिखता है।

नां जाने क्यों,
लब मुस्कुराने से।
और मुस्कुराहट,
लबों से डरती है।

नां जाने क्यों ,
जिंदगी जीने से,
और मौत,
मरने से डरती है।

नां जाने क्यों,
फूल महक नहीं देते,
और कांटे,
चुभने से डरते हैं।
आकाश,झुका सा,
और सितारे,
चमकने से डरते हैं।

नां जाने क्यों ,
आंधियां, थकी सी,
और तुफ़ान,
हवा से डरे लगते हैं।
हर लम्हा सहमा हुआ,
और वक्त,
रुका सा दिखता है।

नां जाने क्यों,
घड़ी की सुईयां,
वक्त नहीं दिखाती अब,
बस पलों को,
दफन करती दिखती हैं।

नां जाने क्यों,
रुह जिस्म में कैद,
मुजरिम सी दिखती है।

नां जाने क्यों,
सांसें रुक रुक कर,
रुकने से डरती हैं।

नां जाने क्यों,
ख़ुदा पर भरोसा,
टूटने से डरता है,
और ख़ुदा ख़ुद,
आंख मिलाने से डरता है।

नां जाने क्यों,
ख़ुदा की मूरत में,
ख़ुदा कम,
और पत्थर ज़्यादा दिखता है।

नां जाने क्यों,
आंखें जैसे, नींद से ख़फा,
और नींद,
आंखों से डरी दिखती है।

नां जाने क्यों,
मैं वासल देवेन्द्र

ख़ुद को समझ नहीं पाता,
सांस लेना ही,
हैं अगर ज़िंदगी,
तो ज़िंदा हूं मैं।
यूं तो ज़िंदगी,
मौत से बत्तर,
दिखती है।

नां जाने क्यों,
मैं क्यों,
जान नहीं पाता,
मेरी जान,
क्यों नहीं निकलती है।
सांस लेना ही,
अगर है जिंदगी,
तो फिर क्यों,
सांस रुक रुक कर,
चलती है,
नां जाने क्यों,
नां जाने क्यों,
सब कुछ,
अजीब सा दिखता है।
*****

हर काली अमावस के बाद।

हर काली अमावस के बाद।… Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
हर काली अमावस के बाद।

बहुत कुछ,
सीखा ज़िन्दगी से।
पर कुदरत से,
सीखना रह गया।
नहीं होती,
सीखने की उम्र कोई।
चलो करता हूं,
कोशिश मैं भी वही।

सागर से,
संन्यासी बनना।
कुछ नां रखना,
अपने पास।
बादल को,
दे देना पानी।
इन्सानों को
घातू संसार।

घरती से,
सीखूं सहना मैं।
जैसे भी हों,
मेरे हालात।
लाखों होते,
दफन मां धरती में।
अपने सब,
धरती के लाल।

सूरज से सीख़ू,
फिर से उभरना।
डूब डूब कर,
हर एक शाम।
चांद से  सीखूं,
लड़ना अंधेरों से।
कितनी भी,
काली हो रात।
हर बार,
फिर से,
निकलता है वो।
हर काली,
अमावस के बाद।

और वो ही तो,
कहता है मुझसे।
ओ वासल देवेन्द्र,
तूं नां हो उदास।
दिन जरुर,
निकलता है।
कितनी भी,
काली हो रात।

हवाओं से सीखूं,
चलना निरन्तर।
नां रुकना,
नां लेना पड़ाव।
दर्द भरे,
हालात में भी।
वो चलती,
ले खुशबू को साथ।

परिंदों से,
टूटे घर को बनाना।
बिना थके,
भरना उड़ान।
नहीं छोड़ते,
वो घर को बनाना।
जो बार बार,
तोड़े तुफ़ान।

नदियों से सीखूं,
पत्थर से लड़ना।
कभी नां छोड़ना,
अपनी आस।
प्यास कहां,
बुझानी है उनको।
बस मिलना,
सागर के साथ।

ओ कृष्णा,
देख कुदरत तेरी।
समझ गया मैं,
सारा सार।
सागर, सूरज,
चांद और धरती।
हवा,
नदियां,
परिंदे, आकाश।
हैं कहते,
मुझे बार-बार।
कुदरत जैसे,
चलती निरन्तर।
तुझे भी
चलना होगा निरन्तर।
उठ हो खड़ा
तूं चल निरन्तर।
ले कर,
हरि का नाम निरन्तर।
*****

आईने में दरार। Written by वासल देवेन्द्र ।D.K.Vasal

आईने में दरार।..WRITTEN BY वासल देवेन्द्र। D.K.VASAL

आईने में दरार।

देखी है,
दरार आईने में मैंने।
पता नहीं,
जख्मी वो था यां मैं ?
हालात कैसे,
बदल देते हैं इन्सान को।
वो  नहीं समझ पाता फिर,
खुद को,
यां हालात को।

शीशा भी कहां,
सही अक्स दिखाता है।
वो अपनी चोट को भी,
हमारी दिखाता  है।

नां करुं सच की उम्मीद,
अगर शीशे से।
तो फिर किससे करुं,
कायनात में और कोई,
कहां सच दिखलाता है।

दोस्त दोस्त हैं,
वो कहां सच कहते हैं।
मेरी कमजोरी को भी,
ताकत बना देते हैं।
और दुश्मन तो यूं भी,
कहां सच कहते हैं।

पूछा शीशे से,
वासल देवेन्द्र ने।
तूं क्यों बदल गया इतना?
शीशा बोला,
मैं कहां बदला?
इन्सान बदल गया इतना,
अब भरोसा नहीं है उसे,
ख़ुद की  नज़र पे।
मेरी दरार को,
वो अपनी समझता है
लिबास हो ख़ुद का गंदा,
तो आईने को मैला समझता है।
मुझे भी अब कहां साफ दिखता है,
हर चेहरा धुंधला,
एक नकाब में छिपा दिखता है।

मैं आइना हूं,
एक बेजान आइना हूं।
मैं नहीं हूं दिल तुम्हारा,
फिर भी सुनता हूं,
बातें तुम्हारी,
बांटने को ग़म तुम्हारा।
तुम भी कहां,
हंसते हो कभी,
सामने मेरे।
मैं तो बना हूं बस,
देखने को दर्द तुम्हारे ।

सबक सिखा दिया,
आईने ने मुझको।
आईने से पहले, 
समझो ख़ुद को।

देखी है दरार,
आईने में मैंने।
मालूम नहीं,
ज़ख्मी वो था यां मैं।
हालात ऐसे,
बदल देते हैं,
इन्सान को।
वो नहीं समझ पाता फिर,
ख़ुद को,
यां हालात को।
******

ओ कृष्णा ये चरण तुम्हारे । Written by वासल देवेन्द्र । D.K.VASAL


ओ कृष्णा ये चरण तुम्हारे,
बांध के रखते नैन हमारे।
हो गये हम तो ऋणी तुम्हारे,
कृष्णा कृष्णा हर सांस पुकारे।

सच कहना है शास्त्रों का,
है चरणों में ब्रह्माण्ड तेरे।
तूं कर कृपा ओ कृष्ण मेरे,
रहूं हर पल मैं चरणों में तेरे।

बड़े बड़ों नें नहीं समझा,
क्या राज़ है तेरे चरणों में।
नहीं समझ पाये राजा बलि,
कैसे चरण पहुंचे तीनों लोकों में।

यमुना जी भी उमड़ पड़ी,
छुने को तेरे चरणों को।
दे दिया रास्ता पिता श्री ( वासुदेव) को,
छू कर तेरे चरणों को।

देख किस्मत कालिया नाग की,
होती जलन वासल देवेन्द्र को।
फन उसका कैसे बार बार,
छूता था हरि के चरण को।

जिसे संसार रखे सर माथे पर,
मां लक्ष्मी निकल सागर मंथन से,
आ बैठी तेरे चरणों पर।

चरण दोये ब्रह्मा ने तब,
तुम आये वामन अवतार में जब।
वो जल भरा कमंडल में जब,
हो गया जन्म गंगा का तब।

जब आये तुम राम अवतार में,
बस छू कर ही एक पत्थर को।
कर दिया मुक्त अहिल्या को।

तेरे चरणों की चाल है टेड़ी,
समझ नां आई कभी भी मेरी।
हाथ में आये जो बांसुरी तेरे,
मूरत भी तेरी हो जाये टेड़ी।

तुम भी जानते हो मेरे कृष्णा,
लीला अपने चरणों की।
खाया तीर बेली से चरणों पर,
कर मुक्ति संसार की।

सच कहते हैं शास्त्र सभी,
तेरे चरणों में ब्रह्माण्ड सभी।
है सृष्टि का आरम्भ वहीं,
और सृष्टि का है अंत वहीं।

ओ कृष्णा ये चरण तुम्हारे,
बांध कर रखते नैन हमारे।
हो गये हम तो ऋणी तुम्हारे,
कृष्णा कृष्णा हर सांस पुकारे।
******

नीयत नज़र और विचार।

नीयत, नज़र और विचार। Written by वासल देवेन्द्र । D.K.Vasal
नीयत नज़र और विचार।

सिर्फ नीयत,
नज़र और विचार,
गंदा होता है।
वर्ना जिस्म तो,
बहन का भी,
वैसा ही होता है।

किसी भी उम्र में,
सो जाओ साथ मां के,
मां, मां ही रहेगी,
बेटा – बेटा ही रहेगा।
पर हर पराई औरत पे,
विचार गंदा ही होता है।

नज़र साफ़ हो,
तो हर चीज़,
साफ दिखती है।
वर्ना सूरज की रोशनी भी
धुंधली दिखती है।

नीयत साफ़ हो,
तो ख़ुदा है हर जगह।
वर्ना मन्दिर में भी,
सिर्फ मूरत ही दिखती है।

विचार अच्छा हो,
तो वचन अच्छा होता है।
वर्ना गालियों में भी,
शब्दों का प्रयोग होता है।

नज़र साफ़ हो,
तो हर अमीर में,
एक गरीब दिखता है।
वर्ना गरीब में भी,
कहां गरीब दिखता है।

नीयत साफ़ हो,
तो झूठ में भी,
एक छिपा सच दिखता है।
वर्ना हर सच में भी,
कुछ झूठ ही दिखता है।

विचार अच्छा हो,
तो आचरण अच्छा होता है।
वर्ना व्यवहार तो,
धोखेब़ाज़ का भी
अच्छा होता है

नीयत अच्छी हो,
तो कारोबार में,
लाभ दिखता है।
वर्ना दिमाग में तो,
लालच का कारोबार ही रहता।

है कहना वासल देवेन्द्र का,
नियत, नज़र और विचार,
हमारी जिंदगी का वो हिस्सा है।
जिससे जुड़ा,
जिंदगी का हर किस्सा  है।
*****

जग…WRITTEN BY वासल देवेन्द्र ।… D.K.VASAL


“जग “
ज से जन्म,
ग से गति. Written by वासल देवेन्द्र..D.K. Vasal.
” जग “
ज से जन्म , ग से गति।

खूब जपा हरि को मैंने,
जीवा से जपा और मुख से जपा।
कंठ से नीचे, शायद उतरा नहीं मैं,
मन से  शायद नहीं जपा।

मां कहती थी हर पल मुझको,
मन से जपना होगा हर पल,
पाना है जो तुझे हरि को।

कहां मानते हैं हम मां की,
भूल जाते हैं हम अक्सर।
मां को रहता सब याद ज़ुबानी,
मां के मुख हर शास्त्र की वाणी।

पूछा वासल देवेन्द्र ने मां से,
कैसे करुं मैं काबू मन को।
मन तो है हवा से चंचल,
उड़ता रहता हर पल वो तो।

मां बोली जो याद है मुझको,
तूं हर पल देख कृष्णा को ऐसे।
जैसे अर्जुन ने देखा पक्षी को,
मछली को देखा अर्जुन ने जैसे।

कोशिश करता हूं मैं अब से,
कर याद अपना मैं पहला गुरु।
मां ही तो होती है अपनी,
हम सब का पहला गुरु।

और भी वो कहती थी मुझको,
मन जीता तो जीता जग।
नही मिलेगा वो नटखट कृष्णा,
जब तक मन में रहेगा जग।

फिर वासल देवेन्द्र ने पूछा मां से,
कैसे छोड़ूं मैं ये जग।
याद मुझे है कहा था उसने,
तूं बस पकड़ कृष्णा का अंग।
बहुत दयालु है वो कृष्णा,
ले लेगा तुझे अपने संग।
पता नहीं चलेगा तुझको,
कब मन छूटा,
कब जग का संग।

तूजे देखना है बस कृष्णा,
हर घाव में हर भाव में।
हर प्राणी में हर जीव में,
हर सच में हर झूठ में।

हर धरती में हर आकाश में,
उपर हो यां हो पाताल में।
हर जल में और हर बूंद में,
अग्नि के धुंऐं – लपटों में।

काली घटा – चमकती बिजली में,
हर पत्ते पर –  चमकती ओस में।
हवा में और,  हर चलती सांस में,
वाणी के ज़हर और अमृत में।

जब देखेगा तूं ऐसे कृष्णा,
उतर आयेगा वो नटखट,
बिना आहट के तेरे मन में।
एक बार जो वो आकर बैठा,
फिर नहीं रहेगा जग तेरे मन में।

ध्यान लगाकर सोचा जब मैंने,
मैं तो सचमुच रह गया दंग।
आसान नहीं समझना जग को,
ज से जन्मे मिल गया जग,
ग से ग़ुज़रे मिल गई गति।
जग छूटे मिले हरि अनन्त।
जग छूटे मिले हरि अनन्त।।

********

ये किसने फिर पुकारा मुझे।

TODAY 19/5/22.
LAST YEAR ON 19/5/21 MY DARLING SON GIRISH LEFT US FOR EVER.
EVERY MOMENT OF MY LIFE I STRUGGLE – IN VAIN , TO CONTROL MY EMOTIONS THAT LEAD TO TEARS. RIGHT NOW WHEN IAM PENNING THIS DOWN THE TEARS ARE ROLLING DOWN MY CHEEKS..
MY GRAND CHILDREN LOOK UPON ME ( THE SETTING. SUN) WITH HOPE.
KINDLY KINDLY READ THE MESSAGE LORD KRISHNA GAVE ME IN DREAMS.
(KRISHNA AND ME ARE INSEPARABLE. HE  KEEPS GUIDING ME)

ये किसने फिर पुकारा मुझे…. Written by वासल देवेन्द्र…D.K.Vasal
ये किसने फिर पुकारा मुझे।

ये किसने फिर पुकारा मुझे,
जिंदगी दुबारा जीने को मुझे।
क्या सुनी है कोई आहट तुम्हें,
फिर किसने नींद से जगाया मुझे।

शायद ख़ुदा ने थपथपाया मुझे,
बड़े प्यार से फिर जगाया मुझे।
बोला अब नई भोर हुई,
अब रात भी थक के चूर हुई।

एक नया सवेरा आया है,
तूं भूल पुरानी बातों को।
तूं देख नन्हों के बचपन को,
तुझे बड़ा करना है उनको अभी,
अब नहीं थकना है तुझे कभी।

नां जाने कैसी पुकार थी वो,
बस दिल के आर पार थी वो।
हो गया मैं उठ के खड़ा तभी,
शायद ख़ुदा ने फिर पुकारा अभी।

करुणा और दया की पुकार थी वो,
ज़ख्मों को भरती आवाज़ थी वो।
ख़ुदा जैसे कह रहा हो मुझे,
छोड़ नींद अब जाग ज़रा,
सूरज तेरी इंतजार खड़ा।

अब ले ले वापस तूं श्राप तेरा,
ओ वासल देवेन्द्र कर यक़ीन मेरा।
मेरे घर में बहुत ख़ुश बेटा तेरा,
मैं कोई और नहीं कृष्णा हूं तेरा।
कृष्णा हूं तेरा, कृष्णा हूं तेरा।।

अब हो खड़ा नई भोर हुई,
अब रात भी थक के चूर हुई।
छोड़ नींद अब जाग ज़रा,
सूरज खुद तेरी इंतजार खड़ा।
******

दीवाना ही सियाना निकला। Written by वासल देवेन्द्र …D.K. VASAL

दीवाना ही सियाना निकला।
दीवाना ही सियाना निकला…. Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal.
दीवाना ही सियाना निकला।

अच्छे थे वो लोग,
जो मयखाने (शराबखाने) के दोस्त निकले।
छोड़ जिंदगी के लम्बे सफर  को,
मयखाने से होकर निकले।

जब तक रहे मस्त रहे,
नां खुशी में रहे,
नां ग़म में रहे।
बस मयखाना उनमें,
और वो मयखाने में रहे।

समझदार थे वो,
जिंदगी का राज़ समझ गये।
यहां हर ग़म करे,
इन्तज़ार ख़ुशी का।
हर ख़ुशी के बाद
बस ग़म रहे।

समझता रहा दीवाना जिनको,
वो ज़हान खुद दीवाना निकला।
होश में रहकर बस ग़म मिला,
वो बेहोश दीवाना सियाना निकला।

हम समझे,
दीवाना पीता है मय को।
हम तो बस मूर्ख निकले,
कहां पीता दीवाना मय को,
मय पीती है उसके ग़म को।

अजीब दस्तूर है जिंदगी का,
यहां ग़म में पूरा ग़म मिले।
ख़ुशी में ख़ुशी कम मिले,
बराबर कहां ख़ुदा तोले।

हम कैसे किसी को मापें तोलें,
है कहता वासल देवेन्द्र।
यहां  सियाना ही दीवाना निकले,
दीवाना ही सियाना निकले।

अच्छे थे वो लोग,
जो मयखाने के दोस्त निकले।
छोड़ जिंदगी के लम्बे सफर को,
मयखाने से होकर निकले।

ख़ुदा समझ गया इरादे मेरे,
वो भी बहुत सियाना निकला।
पिला हरि नाम की मय मुझको,
कर दिया उसने दीवाना मुझे।
फिर  कान में चुपके से बोला वो,
तूं सच कहता है वासल देवेन्द्र,
यहां दीवाना ही सियाना निकले।
यहां दीवाना ही सियाना निकले।।

थोड़ा भीतर झांक के देख,
थोड़ा और तूं पी हरि नाम।
तूं पीता रह हरि नाम की मय,
जब तक नां भीतर तेरे से,
हरि नाम का दीवाना निकले।

ध्यान से भीतर झांक के देख,
थोड़ा और तूं  झांक के देख।
तेरे भीतर ही अब तो,
हरि नाम का मयखाना निकले।
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नां मुड़ कर देख मुझे ऐ जिंदगी। Written by वासल देवेन्द्र …D.K.VASAL

नां मुड़ कर देख मुझे , ए ज़िन्दगी।
Written by वासल देवेन्द्र।  D.K.Vasal

नां मुड़ कर देख मुझे,
ए ज़िन्दगी,
फिर मोहब्बत हो जायेगी।
इश्क का ये असूल है,
मुड़ कर जो देखा,
तो मोहब्बत कहलायेगी।।

गुज़र रही है मेरी,
कुछ यादों के सहारे,
नां दे दखल तूं अब,
नां दे झूठी दिलासा।
उम्र नही है मेरी,
जो चलाता रहूं ये सिलसिला।।

यादें भी जो बची हैं,
सुनहरी नहीं हैं वो।
नां उकसा मुझे तूं अब,
तुझे मेरी जवानी का वास्ता।।

जी लेने दे मुझे चैन से,
नां करा याद वो,
गुज़री हुई रंगीनियां।
बेरंग हो चुकी हैं अब,
वो रंगों से भरी मेरी दुनिया।।

जितना सुलझाना चाहता हूं,
उतनी ही उलझ रही है।
ये ज़िन्दगी नां जाने,
किस मोड़ से गुज़र रही है।।

बहुत अंजान है ये रास्ता,
बहुत कम मुसाफिर चले हैं यहां।
नां कोई रहनुमा (guide ) मेरा,
नां हमसफ़र है कोई यहां।

मुड़ कर देखना,
हो जैसे गुनाह।
हर गुज़रे लम्हे की,
आंख है नम।
ए जिंदगी नां पुकार मुझे,
तुझे मेरी जवानी की कसम।

है जो बचा,
एक हमसफ़र मेरा,
है मेरी तरहां मजबूर वो।
रोता है जो,
रख सर कंघे पे मेरे,
क्या संभालेगा मुझे वो।

ज़िंदगी,
तूझसे शिकायत नहीं है,
वासल देवेन्द्र को।
बहुत दिया तूने,
शायद बहुतों से ज़्यादा।
ग़म भी दिया ज़्यादा,
दर्द भी औरों से ज्यादा।
मना लूंगा तुझे, समझा लूंगा तुझे।
अभी तो ख़फा हूं, ख़फा रहने दे मुझे।

नां मुड़ कर देख मुझे,
ए ज़िन्दगी,
फिर मोहब्बत हो जायेगी।
इश्क का ये असूल है,
मुड़ कर जो देखा,
तो मोहब्बत कहलायेगी।
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दस्तक।

दस्तक।
दस्तक।  Written by वासल देवेन्द्र….D.K.VASAL
दस्तक।
इतने मसरुफ़ ‌(busy )नां रहो,
कि ख़ुद ख़ुद से नां मिल सको।
इतने मगरूर  ( घमंडी )भी नां रहो,
कि दिल की दस्तक, ( knock)
नां सुन सको।

झांका करो ख़ुद में भी,
कभी कभी।
ज़ंग लग जाते हैं,
बंद किवाड़ों को भी।

इक सांसों का सिलसिला,
ही नहीं है बस  ज़िन्दगी।
कुछ जीयो ख़ुद के लिए,
कुछ करो ख़ुदा कि बंदगी। (Prayer)

बस अपने को पहचानो,
दीवानगी में  जीयो।
हो सके जितना,
ख़ुदा की बंदगी में जीयो।

माला की बीड़ीयो  से,
नहीं बंधा है ख़ुदा।
ज़ुबान की हलचल से भी,
नहीं मिलेगा ख़ुदा।
गरीब की झोपड़ी में,
शायद रहता है वो।
करुणा के आंसुओं से ही ,
बस मिलेगा ख़ुदा।

दीवानगी में रहो,
मीरां की तरहां।
इंतजार करो,
शबरी की तरहां।
करुणा हो दधीचि (compassionate king) की तरहां
ख़ुदा ख़ुद आ जायेगा,
महबूबा की तरहां।

खुद से ही बना है,
ख़ुदा मेरा।
फिर भी अजनबी सा है
उससे रिश्ता मेरा।

है राज़ एक ख़ुदा,
ये जानते हैं सब।
रहता तो है कहीं,
ये भी मानते हैं हम।
भाग नहीं सकते उससे,
चाह कर भी हम।
फिर क्यों नां लग जायें,
उसकी बंदगी में हम।

चुरा लो  ख़ुद से ख़ुद को,
ख़ुदा के लिए।
वक्त कम बचा है अब,
बंदगी के लिए।

ज़िंदा रहेंगे तब तक,
जब तक है सांस चले।
ज़िन्दगी मिलेगी तब,
जब हमको ख़ुदा मिले।

ज़िन्दगी के तजुर्बे से,
कहता है वासल देवेन्द्र।
नहीं मिलेगा ख़ुदा,
ढूंढने से कभी।
ख़ुदा मिलेगा उसको,
जिसे चुन लेगा,
ख़ुद ख़ुदा।

इतने मसरुफ़ नां रहो
की ख़ुद ख़ुद से नां मिल सको
इतने मगरूर भी नां रहो
की दिल की दस्तक नां सुन सको।
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दिल चाहता है। Written by वासल देवेन्द्र ….D.K.VASAL

दिल चाहता है।Written by वासल देवेन्द्र…..D.K.VASAL
दिल चाहता है।

दिल चाहता कुछ और है,
पर होता कुछ और है।
मुझे शक है, मुझे शक है,
कि मेरी चाहत,
और होने के दरमिंयान।
खड़ा वो ख़ुदा है।

दिल तो नादान है,
कहां समझता‌ है।
ख़ुदा को,
अपना समझकर।
उसकी हर “श” पर,
हक समझता है।

नहीं जानता वो नादान,
बंटवारा,
पैसों का हो,
यां दिल का।
अक्सर,
अपनों में होता है।

चाहत छोटी हो यां बड़ी,
क्या फर्क पड़ता है।
कहता है वासल देवेन्द्र,
मर्जी ख़ुदा की,
है यां नहीं,
बस ये फर्क पड़ता है।

कुछ चाहना जुर्म हैं क्या?
किसी को चाहना जुर्म हैं क्या?
अगर नहीं?
तो फिर क्यों,
हमारी चाहत में,
ख़ुदा की मर्जी  नहीं होती।
मैं  ख़फा नहीं हूं,
अपने ख़ुदा से।
पर हैरान हूं बहुत।
क्यों हमारी  ख्वाहिश में,
उसकी रज़ा नहीं होती।

हम क्यों चाहेंगे कुछ,
उसकी मर्जी के विरुद्व।
वो क्यों नहीं बता देता,
जिसमें उसकी रज़ा,
नहीं होती।
हमारी चाहत पर भी,
अंकुश है उसका।
अजीब खुदाई है उसकी,
हमारी चाहत भी,
हमारी नहीं होती।

कुछ पारदर्शिता,
ख़ुदा को भी रखनी चाहिये।
हम बच्चे हैं उसके,
कोई गैर नहीं।
फिर क्यों है हमसे,
वो पर्दानशीं।

नां जानें क्यों,
हमारे हर फैसले पर,
शक है उसको।
शायद डरता है वो,
फैंसलों से हमारे।
शायद  चाहता है वो,
ख़ुद से ज्यादा हमको।

दिल चाहता कुछ और है,
पर होता कुछ और है।
मुझे शक‌ है, मुझे शक है,
कि मेरी चाहत,
और होने के दरमिंयान
खड़ा वो ख़ुदा है।
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फकीर –कौन?…Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.VASAL

फ़कीर- कौन ? WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।…D.K.VASAL
फ़कीर — कौन?

ग़म सब को खा गया,
ग़म का नां कोई पीर।
जो ग़म को खा गया,
उसका नाम फ़कीर।

रांझा हर पल कहता रहा,
वो तो मेरी हीर।
पा लेता वो रब को,
जो रब को कहता हीर।

होगा कुछ तरीका तो,
पाने का ख़ुदा को।
किताबों के पन्नों में तो,
यूं ख़ुदा मिलता नही।

होगा कोई तरीका तो,
ग़म को भुलाने का।
यूं वक्त के सहारे तो,
हर दिन कटता नहीं।

सोचता हूं गम को ही,
अपना ख़ुदा मान लूं।
डूबा रहूंगा हर पल मैं,
यूं ही उसके ध्यान में।

ख़ुदा ख़ुद आयेगा,
मिलने मुझसे।
जब कभी आऊंगा मैं,
उसके ख्याल में।

व्यस्त बहुत रहता है वो,
देने में सज़ा लोगों को।
वक्त कहां मिलता है उस को,
सुनने का दुआओं को।

यूं भी तो दुआओं में,
असर कहां है आजकल।
लबों से ही निकलती है,
दिल से तो आती नही।

की,
वासल देवेन्द्र ने।
मोहब्बत बहुत,
उस ख़ुदा से।
जो दिखाई भी देता नही,
यां तो ख़ुदा दिल रखता नहीं
यां मुझे मोहब्बत करना आता नहीं।

कहां मिलते हैं आजकल,
वो रांझा और वो हीर।
जो ग़म को खा जाये,
नही मिलते वो फकीर।

ग़म सब को खा गया
ग़म का नां कोई पीर
जो ग़म को खा गया
उसका नाम फकीर।
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ज़ख्म कहां भरते हैं कभी। Written by वासल देवेन्द्र।..D.K.VASAL

ज़ख्म कहां भरते हैं कभी।….WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।…D.K.VASAL

ज़ख्म कहां भरते हैं कभी,
जो भर जाये वो ज़ख़्म नहीं।
दर्द कहां जाते हैं कभी,
जो चला जाये वो दर्द नहीं

यादें कहां मिटती हैं कभी,
जो मिट जाये वो याद नहीं।
लहू के रंग कहां घुलते हैं,
घुल जाये जो रंग,
वो लहू का नहीं।

कहता है वासल देवेन्द्र

हर दुआ,
कहां सुनता है ख़ुदा।
जो न पहुंची वहां,
वो दुआ ही नहीं।
आंख से बहते आंसू,
हर दम।
जो थम जाये,
वो आंसू नही।

बहारें कहां रहती हैं सदा,
जो सदा रहे वो बहार नहीं।
हवायें कहां रुकती हैं कभी,
जो रुक जाये वो हवा नहीं।

खुशियां कहां रहती हैं हमेशां,
जो हमेशां रहे वो खुशी नही।
अंजान भय रहता है हमेशा,
जो नां रहे हमेशां वो भय नहीं।

ज़ख्म  कहां भरते हैं कभी,
जो भर जाये वो ज़ख़्म नहीं।
दर्द  कहां जाते हैं कभी,
जो चला जाये वो दर्द नहीं।
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अनकहा।….WRITTEN BY वासल देवेन्द्र…..D.K. VASAL

अनकहा।……Written by वासल देवेन्द्र। D.K.Vasal
अनकहा।

ओ जिंदगी,
अभी बहुत कुछ,
अनकहा है पास मेरे।
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब अंधेरों में,
साया भी,
कहां बचा है पास मेरे।

वो चिराग था मेरी आंख का,
वो नूर था मेरी रुह का।
कलेजे का टुकड़ा था मेरा,
एक अजीब सी आंधी ने,
लूट लिया जहां मेरा।

कभी जिंदगी से मत कहना,
नया कुछ सिखाने को।
कीमत बहुत मांगती है,
वो हर सबक सिखाने को।

जिंदगी,
कड़वा सच सिखाती है बस।
पर सब्र कहां  से लाऊं,
वो सब सीखने को अब

हर उजड़े हुये पेड़ का,
पतझड़ ही नहीं दोषी।
कुछ बाग उजड़ जाते हैं,
बहारों में कभी कभी।

शिकायत किससे करूं,
कोई सुनता ही नहीं।
नां जाने कौन बैठा है,
आसमानों के पार।
हर दुआ लौट आती है,
कुछ दूर जाने के बाद।

किनारे पर बैठ कर,
अंदाज़ नहीं होता।
दबाव कितना है,
सागर के गर्भ पर।

जिंदगी,
पहले से ही पहेली थी।
अब और उलझन बन गई,
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब तो मरहम ही,
ख़जर  बन गई।

अब सोचता है वासल देवेन्द्र,
चुप रहूं, कुछ नां कहूं,
नां खुद से,
नां किसी और से,
रहने दूं सब अनकहा,
अब अनकहा ही अंत में।

ओ जि़दगी,
अभी बहुत कुछ,
अनकहा है पास मेरे।
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब अंधेरों में,
साया भी,
कहां बचा है पास मेरे।
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मौत से पहले ज़िंदगी मर गई। Written by वासल देवेन्द्र। D.K.VASAL

है अजीब सा ज़हर,
आसमानों में।
अब हवा भी डरती है,
सांस लेने में।
जैसे लहरें हों,
प्यासी दरिया में।
भटकती हो रुह
कुछ पाने में।

ऐसा लगता  है जैसे,          
सब कुछ बदल गया।
सहने की आदत क्या पड़ी,
दर्द ही दवा बन गया।

ज़रुरत नहीं है,
दुश्मनों की अब।
दोस्त ही अब तो,
दुश्मन बन गया ।
कहां जाऊं,
ढूंढने मैं सच को।
हर झूठ,
अब सच बन गया।

रंग बदलते हैं,
लोग इतने।
की आईना भी,
परेशान हो गया।
अब नहीं दिखाता,
चेहरा वो असली।
अब आईना भी उनका,
किरदार हो गया।

ऐसा लगता है,
जैसे सब बदल गया।
चेहरे बदल गये,
मुस्कुराहटें बदल गई।
ठहाके,
झूठी हंसी में बदल गये।
आंसू तो जैसे,
पलकों पर थम गये।

तुम बदल गये,
मैं बदल गया।
अब नहीं दिखाते,
ज़ख्म तुम अपने।
मैं भी नहीं,
होता बेपर्दा।
नहीं दिल खोलते,
कोई अब अपने।

मोहब्बत तो जैसे,
यूं मर गई।
जैसे गुनाह के नीचे,
रुह दब गई।
सोचता है वासल देवेन्द्र ये,
जैसे मौत से पहले,
जिंदगी मर गई।
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बोली की होली

बोली की होली।
WRITTEN BY D.K.VASAL..वासल देवेन्द्र।
बोली की होली

आओ खेलें हम सब होली,
इस बार खेलें, बोली की होली।
होली है रंगों की टोली,
हों जहां रंग होती वहां होली।
चलो खेलें बोली की होली,
थोड़ा हटकर खेलें इस बार की होली।

हम ध्यान नहीं करते पर दिन भर,
हम हर दम खेलते रहते होली।
गुस्से में चेहरा हो लाल पीला,
मुस्कुराने से होता मौसम रंगीला।
शरमाओ तो हों गाल गुलाबी,
बदल देती है चेहरे के रंग,
हम सब की ये अपनी बोली।

बोलें अगर हम मीठी बोली,
छोड़ेगी वो रंग सतरंगी।
हर पल होगी हमारी होली,
कुदरत के रंगों की होली,
खेली जो गालों ने होली।

नही होता रंग सफेद होली में,
हो चेहरा सफेद बस घबराहट में।
नां बोलो तुम कभी ऐसी बोली,
जो करे सफेद चेहरे की होली।

खेलो मीठे वचनों की होली,
रंग दो सब का तन मन ऐसे।
कुदरत ने बांटे रंग जैसे,
जैसे हो फूलों की क्यारी।

शब्दों की चाशनी से भरे गुब्बारे,
आज नां छोड़ो किसी को भी तुम।
बिना गिनें मारो गुब्बारे,
मारने वाला नां शरमाये,
खाने वाला मस्त हो जाये।

रसना (ज़ुबान /जीवा ) अपनी को मीठी बनायो,
मीठी वाणी की पिचकारी चलाओ।
रंग बिरंगे रंग बरसाओ,
मीठे शब्दों के बान चलायो,
खुद खाओ औरों को खिलायो।

आओ मिलजुल खेलें होली,
हट कर थोड़ा खेलें होली,
आज खेलें बोली की होली।

है वासल देवेन्द्र का कहना,
होली तो है एक बहाना।
है हमको रूठों को मनाना,
कौन रूठता है गैरों से?
तुम रूठे जो हमें अपना माना।

चलो रखें हम मान होली का,
तुम अब कर दो माफ़ मुझको।
मैं भी भूल जाऊं हर शिकवा,
इस बार खेलें ये मौखिक होली।
रंगों में भीगे शब्दों की होली,
आओ खेलें बोली की होली।
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अमावस की रात में चांद। …WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।…D.K.VASAL


अमावस की रात में चांद चाहते हो। Written by वासल देवेन्द्र।…D.K. Vasal.

ख़ुदा भी चाहते हो,
जहां भी चाहते हो।
बड़े नां समझ हो,
अमावस की रात में,
चांद चाहते हो।

ख़ुदा जो मिल गया,
तो ख़ुद ख़ुद नां रहोगे।
जो ख़ुद को खो दिया,
तो क्या जहां में तुम लोगे।

इश्क जहां से करोगे,
तो ख़ुदा नां मिलेगा।
इश्क ख़ुदा से करोगे,
तो जहां नां बचेगा।

ख़ुदा दिलरुबा है तब तक,
जब तक मिला नहीं।
जो मिल गया इक बार,
तो वो दिलरुबा नहीं।

चलाती है हमको,
जहां में हर वो चीज़।
जो रहती है हम में,
पर दिखती कभी नही।

रुह हो हमारी,
यां हो हमारा ख़ुदा।
हम जानते हैं सब को,
पर मानते नहीं।

जो मानते हम ख़ुदा,
बसा हर एक रुह में।
तो दिल किसी का कभी
हम दुखाते नही।

ढोंगी हैं हम सब,
पाखण्ड से भरे।
दुआ भी किसी को,
दिल से देते नही।

नाम लेते हैं ख़ुदा का,
बस ज़ुबान से।
करते हैं फिर शिकायत,
कि वो दिल की सुनता नहीं।

जो भी देता है वो हमें,
कम ही लगता है।
अपने सिवा इस जहां में
हमें कोई दिखता नहीं।

मूर्ख हैं हम सब,
कबूतर की तरहां।
कर लेता है जो आंख बंद,
बिल्ली को देख कर।
जैसे बिल्ली भी उसको,
देख पाती नही।

झूठ बोलते हैं हर पल,
ये सोचकर।
जैसे सच को और कोई,
जानता नहीं।

कहता है वासल देवेन्द्र,
इसीलिए ये सच।
रुह हो हमारी,
यां हो हमारा ख़ुदा।
हम जानते हैं सब को,
पर मानते नहीं।

हम चाहते हैं ख़ुदा,
और जहां भी चाहते हैं।
बड़े नां समझ हैं,
अमावस की रात में,
चांद चाहते हैं।
*****

पुकार। written by वासल देवेन्द्र। D K. VASAL

पुकार ।
पुकार।… WRITTEN BY वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL
पुकार।

ओ ख़ुदा,
जो किस्मत में लिखा है,
वो ही दिया तो क्या दिया।
तू ख़ुदा तो तब है,
जब वो दे,
जो किस्मत में नहीं लिखा।

किस्मत में,
तो मेरे कर्मो की कमाई है।
जो वो ही दिया,
तो कहां तेरी खुद़ाई है।

पाप भी मेरे,
पुण्य भी मेरे,
अच्छे बुरे कर्म भी मेरे।
पर गिनती तेरी,
और हिसाब भी तेरा,
क्या खाते ही लिखना है काम तेरा।
कैसी ये ख़ुदाई तेरी,
तूं कैसा है ख़ुदा मेरा।

कुछ तो कर इंसाफ ख़ुदा,
जब पत्ता नहीं हिलता,
मर्जी के तेरी।
जो कुछ भी हुआ,
वो तूने किया।
फिर दोष क्यों,
मेरे सर मंड दिया।

कुछ कर्म तो,
तू भी करके दिखा।
भूल मेरे कर्मो को,
कुछ दया तू भी कर के दिखा।

कुछ तो तूं समझा ख़ुदा,
कहां तेरी करुणा,
कहां दया ख़ुदा।
बिना करुणा बिना दया के,
कैसे तूं बन गया ख़ुदा।

कभी तो तू भी,
ज़रा ज़मी पर आ।
कुछ वक्त हमारे साथ बिता,
कुछ दर्द हमारे,
सह कर देख।
नां निकले आंसू
जो आंख से तेरी।
तो सह लूंगा हर सज़ा
ओ मेरे ख़ुदा।

तूं वक्त कहां देता है हमको,
जो मन से याद करें हम तुझको।
क्या बता सकता है,
पल कोई ऐसा,
जो चिंता बिना,
जीया हो ऐसा।

कहता है वासल देवेन्द्र ,

दर्द भी मेरा,
आंसू भी मेरे,
पीड़ा भी मेरी,
ज़ख्म भी मेरे।
दुःख भी मेरा,
ग्लानि भी मेरी,
कुछ नां करुं,
शिकायत मैं,
क्या ये ही है,
इंसाफ तेरा।
और ये ही है,
कुदरत तेरी।

ढूंढता मैं भी रहता हूं,
कहां है करूणा तेरी।
कहां है दया तेरी,
जो किस्मत का लिखा ही दिया,
तो कहां है खुदाई तेरी।
तो कहां है खुदाई तेरी।
******

यहां ख़ुदा भी आने से घबराते हैं।

यहां ख़ुदा भी घबराते हैं।…. WRITTEN BY वासल देवेन्द्र। …D.K.VASAL.

यहां ख़ुदा भी घबराते हैं।
ए नादान ज़रा सम्भल कर चल,
ये इन्सानों की बस्ती है।
रंग रूप बदल देते हैं ये,
यहां ख़ुदा भी आने से डरते हैं।

हैरान है वासल देवेन्द्र बहुत,
ये दिखाते ख़ुदा को साथ हथियार।
ये ख़ुदा को भी समझते कमज़ोर,
ये कहां उस से घबराते हैं।

जो पलक झपका, हिला दे धरती,
पल भर में, गिरा दे आसमान।
क्या उसे करना है बतलाओ,
उठा कर ये, धातू हथियार।

कभी कभी तो लगता मुझको,
मिथ्या है इन्सानी विचार।
मिथ्या है कल्पना हमारी,
जो देखें ख़ुदा हथियारों के साथ।

रोम रोम में जिसके बस्ते,
हजारों धरती हज़ारों आकाश।
जिसके  बादल की बूंदें,
दे मोती में सीप हज़ार।
बिजली कड़े बरसे आग,
हवा आंधी उड़ा दे सारे बाग।
क्या करेगा वो ईश्वर,
उठाकर ये धातू हथियार।

झूठी है कल्पना हमारी,
और छोटी है हमारी सोच।
ख़ुदा की वैसे रच देते मूरत,
जैसी छोटी हमारी सोच।

क्या यही भाव बचा है हम में,
देखें ख़ुदा हथियारों के साथ।
उस करुणा निधि ख़ुदा को भी,
हम देखें हों भयभीत के भाव।

माता दुर्गा दिखे हथियारों के साथ,
बिना धनुष और बिना बाण,
नां दिखते कहीं भगवान राम।
शंकर भोले भी रखते त्रिशूल
बिना गद्दा नां कहीं हनुमान।

हैरत होती है वासल देवेन्द्र को,
कैसे किसने किया विचार।
सपने में भी नां देखी होगी सूरत,
फिर कैसे रची ख़ुदा की मूरत।
झूठे तुम हो कलाकार,
झूठा दिया तुमने आकार।

मां होती ममता की मूरत,
फिर क्यों नां देखी वो उसकी सूरत।
सब मिल मूर्ख इन्सानों नें
बस शमशीर (तलवार) दिखा दी उसके हाथ।

कौन भगवान राम से दयालु,
कौन और पावन पवित्र।
उठाया धनुष उठाया बाण,
करने को राक्षस संहार,
मूर्ख इन्सानों नें रच दी,
मूरत राम की संग धनुष और बाण ।

नाम का भोला काम का भोला,
करणा ही करुणा वो जब भी बोला
देकर सबको अमृत उसने,
ज़हर को अपने कंठ में घोला।

फिर भी ये मूर्ख इन्सान,
उस भोले को त्रिशूल संग दिखलाते हैं।
कैसी कब ये कर दे रचना,
ख़ुदा भी समझ नां पाते है।

जऱा सम्भल कर चल नादान,
ये इन्सानों की बस्ती है।
रंग रूप बदल देते हैं ये
यहां ख़ुदा भी आने से घबराते हैं।
****

ज़ुबान।

ज़ुबान। Written by वासल देवेन्द्र।….D.K.VASAL
ज़ुबान।
बस रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं,
वर्ना मुंह में ज़ुबान हम भी रखते हैं।
तुम्हारी नादानगी शायद हम से ज़्यादा  हैं,
इसलिए ज़ुबान बन्द रखते हैं।

होती तो है हर किसी के पास,
पर अक्लमंद संभाल कर रखते हैं।
होती है आदत से चंचल बहुत,
सयाने लोग अंकुश लगा के रखते हैं।

ज़ुबान के बदले चल जाती है ज़ुबान,
जो संभालते हैं चंचलता उसकी।
वो ही रिश्ते संभाल के रखते हैं
यूं तो वो भी मुंह में ज़ुबान रखते हैं।

सोच हो अच्छी तो,
ज़ुबान मीठे अल्फ़ाज़ देती है ।
सोच हो मैली तो
ज़ुबान ज़हर उगल देती है।
ज़ुबान तो बस सोच को,
अल्फ़ाज़ देती है।

नज़र वो देखती है,
जो दिखाया जाता है।
कान वो सुनते हैं,
जो सुनाया जाता है।
ज़ुबान वो कहती हैं,
जो बतलाया जाता है।

ज़ुबान खुद ये नसीहत देती है
दांतों में रह कर भी,
दांतों से बची रहती है।
कहता है वासल देवेन्द्र
जरुरी नहीं,
ज़ुबान के बदले ज़ुबान चलाना।
रिश्तों की अहमियत तो,
ज़ुबान से बड़ी होती है।

मुंह में ज़ुबान होने से,
कुछ नही होता।
जो रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं
वो ज़ुबान को बेजुबान रखते हैं।

सच की फितरत है कड़वा होना,
सच के कड़वे बोल होते हैं।
जो मिठास से सच कहते हैं,
वो यकीनन सयाने होते हैं।
बस रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं।
इसीलिए ज़ुबान बंद रखते हैं।
****

अकेला……


Today 9 months when our darling son Girish left alone and left us alone in tears.
Kindly read how I feel.
अकेला।… Written by वासल देवेंद्र..
अकेला।
आज इतना अकेला,
लग रहा है मुझको।
जैसे छोड़ गया कोई,
दफ़न करके मुझको।

याद इतनी,
आती है उसकी।
कि पलकें भी मना करती हैं,
झपकने से अब तो।

लेता रहता हूं करवटें,
अब नींद नहीं आती।
अब तो तकिया भी सो जाता है,
इन्तज़ार करते करते।

नहीं आयेगा लौट कर वो,
ये जानती हैं आंखें।
फिर भी खुली रहती हैं,
इन्तज़ार करते करते।

बहुत समझाता हूं मैं दिल को,
पर वो मानता ही नहीं।
करके साजिश साथ आंसुओं के,
बहुत सताता है वो मुझको

जी लूंगा तब तक,
है सांसों का सिलसिला जब तक।
नहीं भूल पाऊंगा,
लाडले को अपने।
सांस आख़री,
नां निकले जब तक।

क्या मांगा था वासल देवेन्द्र ने ?
बस इतना ही।
कि दे बेटा अग्नि मुझको,
फिर क्यों हंसती है कुदरत?
कर याद मेरी ख्वाहिश को।

सो जाऊंगा इक दिन मैं भी,
ओड़ कर सफेद कफ़न।
कर ख्वाहिशें अपनी दफ़न,
पा जाऊगां मैं भी उस दिन।
श्मशान के अमन का चमन।

आज इतना अकेला,
लग रहा है मुझको।
जैसे छोड़ गया कोई,
दफ़न करके मुझको।
*****”

SOLDIERS- सैनिक

SOLDIERS – सैनिक
WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।… D K VASAL,
DEDICATED TO SOLDIERS.
SOLDIERS– सैनिक

वो सो गये कफ़न ओढ़ के,
हम सो गए मुंह मोड़ के,
थे लाडले वो भी, अपने परिवार के,
जो चले गये, सब छोड़ के।

वो बन बन के शव , हमें झंझोड़ते रहे,
हम शव हों जैसे, ऐसे सोते रहे।
देख सुबह अखबारों में,  शहादत उनकी,
ले ले कर चुस्कियां, चाय पीते रहे।

पल दो पल में उनको भुलाते रहे,
अपने हर फर्ज़ को हम झुठलाते रहे।
उनकी शहादत को फर्ज़ बतलाते रहे,
उनके बलिदान को, इक खबर बनाते रहे।

ना मिट्टी को अपनी सराहा कभी,
ना वीरौं को अपने दुलारा कभी।
फुला करके सीना, झूठ कहते रहे,
है वतन ये हमारा, चिल्लाते रहे।

हर पल हम रंग बदलते रहे,
गिरगिट भी हमसे शर्माते रहे।
हम सुरक्षा से अपनी, धबराते रहे,
वो सीने पे गोली , खाते रहे।

वो शवों के ढेर, बनते गये,
हम ऊंचा घरों को, करते गये।
परिवार उनके सिसकियां भरते गये,
हम ठहाकों में, सब कुछ भुलाते गये।

क्या आती नही हमको लज्जा शर्म ???
अगर हां ,  तो खाते हैं मिलकर कसम,
मनाने से पहले, कोई भी त्योहार,
करेंगे नमन, उन शहीदों को हम।

है सबसे बड़ा, ये ही शगुन,
हो जाये आंख , हमारी भी नम।
कहता है वासल देवेन्द्र
इतना तो कर लें कम से कम,
पत्थर नहीं इन्सान है हम।
*****”

किरदार। अब मैंने कहना छोड़ा।… written by वासल देवेन्द्र।..D.K. VASAL

किरदार.. अब मैंने कहना छोड़ा।… Written by वासल देवेन्द्र।… D.K.Vasal
किरदार…
संगत का असर होता है,
अब मैंने कहना छोड़ा।
फूलों के संग रह कर भी,
कब कांटों ने चुभना छोड़ा।

बात संगत की नहीं,
किरदार की हैं।
कहां फूलों ने,
संग कांटों के,
महकना छोड़ा।

सांप लिपटता रहता है,
चंदन के पेड़ पर।
कहां छोड़ता है,
ज़हर उगलना।
चंदन भी,
बनाए रखता है,
किरदार अपना।
नहीं छोड़ता,
खुशबू देना।

हर जीव, हर जन्तु,
अपना किरदार,
बनाये रखता है।
बस एक इन्सान,
ही है जो,
किरदार को गिरगिट
बनाए रखता है।

घमंड है लोहे को,
अपनी मजबूती पर।
तभी तो लोहा,
लोहा काटने के,
काम ही आता है।
झूकता है सर,
वासल देवेन्द्र का।
उस पारस के किरदार पर,
जो लोहे को भी,
सोना बना देता है।

बरसात की बूंद तो,
पानी ही लाती है।
किरदार देखो उस सीप का,
जो उसे मोती बनाती है।

चकोर को देखो,
टकटकी बांधे।
है रहता देखता,
आकाश को।
बनाए अपने किरदार को,
नहीं पियेगा पानी कोई,
बस  बूंद बरसात को।

हर ‘श’  का,
एक किरदार होता है।
बस एक इन्सान ही है जो,
नांशुक्रिया, नां कद्रदान,
नां उसका कोई
किरदार होता है।

लिबास कैसा भी हो,
किरदार नहीं छिपा सकता।
दर्द था ही नहीं उसके सीने में,
तो वो क्या बयान करता।

संगत का असर होता है
अब मैंने कहना छोड़ा।
फूलों के संग रह कर भी
कहां कांटों ने चुभना छोड़ा।
*****

ओ कृष्णा ये नैन तुम्हारे।.. WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।…D.K. VASAL

ओ कृष्णा ये नैन तुम्हारे… Written by..वासल देवेन्द्र.. D.K.Vasal
ओ कृष्णा ये नैन तुम्हारे।

ओ कृष्णा ये नैन तुम्हारे,
करते हैं बेचैन ये मुझको।
छीन लिया मेरा चैन इन्होंने,
क्या बताऊं ओ मेरे कृष्णा,
क्या हाल हुआ है मेरा तुझको।

सच में थी क्या राधा बांवरी?
देखे जो हर पल नैन तुम्हारे,
फस गई वो नैनों के जाल में,
दुनिया कहे राधा थी बांवरी।

नैन तेरे जैसे मस्त शराबी,
कर इशारा बुलायें वो मुझको।
ओ वासल देवेन्द्र तू आजा,
तू भी पी ले नैनों की मस्ती।
तू भी पी ले नैनों की मस्ती।

राधा की तृष्णा थी कृष्णा,
मुझे भी पीनी है वो मस्ती।
पर जानता हूं मैं मेरे कृष्णा,
कहां राधा कहां मेरी हस्ती।
कहां राधा कहां मेरी हस्ती।

जिसने भी पीली वो मय,
हों गया मस्त बन गया शराबी।
हर किसी को पकड़ के बोले,
तू भी पी ले नैनों की मस्ती।
तू भी पी ले नैनों की मस्ती।

गोपियां भी घर छोड़ के आती,
अपने सब वो भूल कर आती।
नैनों की मस्ती में डूबने आती,
कृष्णा तूं सदियों से शरारती।
खा कर सारा माखन उनका,
मां से कहता ये झूठ हैं कहती।

नजरें तेरी हैं जादू भरी,
सूखी धरती हो जाये हरी।
उस पर बांसुरी मस्ती भरी,
एक बार तेरी बजे जो बांसुरी,
रुक जाये हवा हो मस्त खड़ी।

तेरे नैनों की बात निराली,
चुरा ले जाती काजल नैनों से,
चुपके चुपके रात वो काली।
एक बार पलक जो झपके अपनी,
झूम जाती सृष्टि ये सारी,
खो कर अपनी सुध-बुध सारी।

सृष्टि चलती तेरे नैनों से,
उसको भी नैनों की प्यास।
ज़रा झूकें तो बरखा बरसे,
ज़रा उठें आये भूचाल।

जैसे कमल कीचड़ में रहता,
ऐसे जग में नैंन तुम्हारे।
बांध जगत को मोह में अपने,
ख़ुद रहते हैं मुक्त हमेशां।

प्रार्थना है वासल देवेन्द्र की,
तूं हर पल रहे नैनों में मेरे
अंत समय जब आये मेरा,
मैं रहूं नैनों में तेरे

ओ कृष्णा ये नैन तुम्हारे,
करते हैं बेचैन ये मुझको।
छीन लिया मेरा चैन इन्होंने,
क्या बताऊं ओ मेरे कृष्णा,
क्या हाल हुआ है मेरा तुझको।
***

मोमबत्ती।… Written by वासल देवेन्द्र। D.K. Vasal

मोमबत्ती… Written by वासल देवेन्द्र। D.K.Vasal
मोमबत्ती।
मोमबत्ती जिस घागे को,
दिल में बसाये रखती है।
ख़ाक कर देता है,
वो घागा ही मोमबत्ती को।

दिल में जो भी बसता है,
दर्द देता है।
बड़ा मुश्किल है समझना,
कसूर किसका है।
बसने वाले का,
यां दिल का है।

खाली रखे जो दिल ख़ुद को,
तो उदास रहता है।
बसा ले जो किसी को,
तो दर्द सहता है।
बड़ा नाज़ुक और नादान है,
हर हाल में परेशान रहता है।

दोनों की राशि भी एक है,
द से दिल द से दर्द है।
नां दिल ही छोड़ता है दर्द को,
नां दर्द ही दिल को छोड़ता है।

पा ले जो अपने को,
तो खुशी में तेज़ धड़कता है।
खो जाये जो अपना,
तो और भी तेज़ धड़कता है।

ये देख कर,वासल देवेन्द्र को,
तसल्ली मिलती है।
शायद ये ही,
ख़ुदा का असूल है।
हर अच्छी चीज़ को,
सज़ा मिलती है।

दिल के दर्द का तो,
सबब जान लिया मैंने।
वो ख्वाहिशें समेट कर रखता है,
कभी टूटने के डर से,
कभी टूटने पर बिखरता है।

मज़बूत भी होते हैं,
दिल कुछ लोगों के।
जो हंस सकते हैं,
दूसरे के ज़ख्मों पर।
भूल जाते हैं वो अक्सर,
दिल की फितरत है चंचल।
आज नहीं तो कल,
वो रुलायेगा उनको,
उनके ही ज़ख्मों पर।

हालात कुछ भी हों,
कैसे भी हों,
मेरे यां तुम्हारे हों।
दर्द मेरा हो, यां तुम्हारा हो,
रोयेगा दिल ही,
मेरा हो यां तुम्हारा हो।

मोमबत्ती जिस घागे को,
दिल में बसाये रखती है।
ख़ाक कर देता है वो,
धागा ही मोमबत्ती को।
******

ख़ुदा रहता है आसमांनो में। वो…. दूर….. बहुत दूर…..

ख़ुदा रहता है आसमांनो में। वो….. दूर…..। बहुत दूर……. WRITTEN BY वासल देवेन्द्र। D.K. Vasal

वो……………दूर…………।
बहुत दूर…………..।
ख़ुदा रहता है आसमांनो में,
यही तो तमाम उम्र,
भरते रहे मेरे कानों में।

दूरबीन बनाईं इन्सान ने,
लाने को सितारों को पास।
फिर क्यों भेज दिया,
दिल में बसे ख़ुदा को,
दूर……. आसमानों में।

हर कीमती चीज़ को,
दिखाते हैं पहुंच के बाहर।
यकीन कर लेता है बच्चा,
बात पर बड़ों की।
कर लेता है मन को पक्का,
कि ख़ुदा तो बस।
रहता है आसमांनो में,
ख़ुदा तो बस रहता है दूर ही।

ख़ुदा को ढूंढने की चाह,
बच्चे में छोड़ते ही नहीं।
जैसे बस उनके पास ही है,
ख़ुदा तक पहुंचने की राह।

हर बात पर डराते हैं उसे,
लेकर नाम ख़ुदा का।
जैसे वो दूर आसमानों से,
उतरेगा,
देने को बस सज़ा ही।

गुंजते हैं बोल कानों में,
ख़ुदा से डर ।
वो देखता है तुझको,
नही सुना कभी कहते किसी को,
तूं अच्छा है बच्चा।
ख़ुदा देखता है तुझको।।

पूरी उम्र गुज़र गई,
नहीं समझ पाया वासल देवेन्द्र।
क्यों बुनियाद ख़ुदा की,
बनाते हैं उसके डर से।
नहीं सुना मैंने कभी
कहते किसी को,
मैं चाहता हूं तुझको इतना।
ख़ुदा चाहता है जितना तुझको।

विश्वास ऐसे ही,
डोल जाता है ख़ुदा से।
जैसे हो कर बड़ा बच्चा,
छुट जाता है डर से।

मोहब्बत नहीं कभी मरती,
रखो याद हमेशां।
तुम चाहते रहोगे उसको,
वो नां भी चाहे जो तुमको।
फिर क्यों नहीं सिखाते,
उस मासूम बच्चे को।
बहुत प्यार करता है,
सच में ख़ुदा उसको।

बस सूरत उस ख़ुदा की,
बता देते हैं ऐसे।
वो दया करेगा यां,
सज़ा देगा जैसे।

है प्रार्थना वासल देवेन्द्र की,
मत डराओ बच्चों को।
तुम ख़ुदा के नाम से,
दो कुछ छूट उनको भी।
ढूंढने की ख़ुदा को।
शायद तुमसे पहले ही,
ढूंढ ले वो
तम्हारे ख़ुदा को।
सिखाओ तुम उसको,
करना प्यार ख़ुदा से।।

वो………… दूर…………..।
बहुत दूर……………….।
ख़ुदा रहता है आसमांनो में
यही तो तमाम उम्र
कहते रहे मेरे कानों में।
*****

चलती नदी में ठहरा पानी।.. Written by वासल देवेन्द्र।…D.K. VASAL

चलती नदी में ठहरा पानी। Written by वासल देवेन्द्र…
D.K.VASAL

चलती नदी में ठहरा पानी।

वक्त गुज़रता ही नहीं,
और ठहरता भी नहीं।
नां जाने ज़िन्दगी,
किस दौर में ले आई मुझे।
पहले चलता था मैं,
वक्त से आगे।
अब वक्त मेरे साथ,
चलता ही नहीं।

अजीब सा हो गया है सब कुछ,
कुछ भी जाना पहचाना सा,
लगता ही नहीं।
सांस तो ले रहा हूं मगर,
हूं ज़िंदा यां मुर्दा,
समझ पाता  ही नहीं।

हर एक लम्हा,
जैसे एक राज़ है।
वो कुछ कहता नहीं,
मैं समझ पाता नहीं।
ऐसा लगता है जैसे,
चलती नदी में,
ठहरा पानी हूं मैं।
रुक सकता नहीं,
बह सकता नहीं।

गीली लकड़ी की तरहां,
ख़ुदा ने सुलगाया है।
नां पूरा जलाया है,
नां पूरा बुझाया है।

अच्छे बुरे सब दौर,
देखे हैं वासल देवेन्द्र ने।
पर ये दौर,
समझ आता ही नहीं।
पहले आती थी,
दिल के हाल पे हंसी।
अब हंसने को दिल,
चाहता ही नहीं।

वक्त ऐसा  आया,
सब कुछ भुला कर रख दिया।
कुछ याद करने का,
दिल करता ही नही,
घबरा जाता हूं, कर याद,
अपने ही ठहाकों को।
वो सपना था यां ये सपना है,
कुछ समझ पाता ही नहीं।

वक्त में राज़ छिपे रहते हैं,
सुनने में अच्छा लगता है।
खुल जाये जब कोई राज़,
तो जहां रुका सा लगता है।

दिन को रात और,
रात को दिन समझता हूं।
आधी रात को उठकर,
अक्सर रोता रहता हूं।
अब सूरज की इन्तजार,
नहीं करता मैं।
अंधेरे से ही सवाल,
करने लगता हूं।

गुज़र जायेगा ये दौर भी,
मेरी जिंदगी के साथ।
फूंक दी जवानी पूरी,
पर कुछ भी नां आया हाथ।
जिसके भरोसे पर हुआ बूढ़ा,
उस लाडले का भी छूटा साथ।

ऐसा लगता है जैसे
चलती नदी में।
ठहरा पानी हूं मैं।
रुक सकता नहीं,
बह सकता नहीं।
*****

कौन लगाम कौन घोड़ी। written by वासल देवेन्द्र D.K.VASAL.


कौन लगाम और कौन घोड़ी।
WRITTEN BY वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL
कौन लगाम और कौन घोड़ी।

कई रिश्ते बना कर भेजे ख़ुदा ने,
पर इन्सान भी चतुर निकला।
एक दोस्ती का रिश्ता बनाया उसने,
जो हर रिश्ते से हसीन निकला।

ज़्यादा मैं नहीं कहूंगा कुछ,
है सोचना वासल देवेन्द्र का।
अनमोल चीज़ें होती हैं थोड़ी,
अजीब रिश्ता है ये यारों।
नही जानता कोई इसमें,
कौन लगाम और कौन घोड़ी।

तुमने कर दिया मुझे गरीब यारो,
कर प्यार से मालामाल यारो।
ये ही एक खुशी है,
जो आंसुओं से हंसती है।
बिना तुम्हारे यारो,
क्या मेरी हस्ती है।

बस अब मुझे,
कर्ज़ंदार रहने दो।
मत मांगना वापिस मुझसे,
प्यार का  ये उधार।
मेरे दोस्तो मेरे यार,
बस मुझे कर्ज़दार रहने दो।

यूं भी कहां चुका पाऊंगा,
मैं  प्यार का उधार।
तुमने कर दिया मुझे और ग़रीब,
दे कर ये अनमोल उधार ।

तुम खुद नहीं जानते,
इसकी कीमत क्या है।
बस दे दिया मुझको,
बिना करे हिसाब।

बादशाहों से कम नहीं हो तुम,
अनमोल हीरा हैं ख्याल तुम्हारा।
कोहिनूर से अच्छा है दिल तुम्हारा,
नही चुका पाऊंगा मैं ये कर्ज़ तुम्हारा।

मैं नहीं जानता,
है कितना असर दुआ में मेरी।
पर ऐ मेरे ख़ुदा,
बस एक ही है दुआ मेरी।
मेरे यारों पे रहे,
अच्छी नज़र तुम्हारी।

कई रिश्ते बना कर भेजे ख़ुदा ने,
पर इन्सान भी चतुर निकला।
एक दोस्ती का रिश्ता बनाया उसने,
जो हर रिश्ते से हसीन निकला।
******

हां, कुदरत सब की होती है। Written by वासल देवेन्द्र।…D.K. VASAL

हां, कुदरत सब की होती है। Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.Vasal

हां
कुदरत सब की होती है,
ध्यान से देखा,
मैंने बरसात को,
बराबर बरसती है।
पर कहां सब के सर पर,
छत होती है।

आंधी की जननी भी,
हवा होती है।
बराबर चलती है,
उड़ जाये चाहे गरीब की छत,
कहां फर्क करती है।

हां
कुदरत सब की होती है,
सूरज भी कहां फर्क करता है।
बिना छत की घर पर भी,
बराबर आग उगलता है।

चांदनी भी वही मिज़ाज रखती है,
बिना उजाले वाले घर पर भी
पूरी अमावस करती है।

हां,
कुदरत सब की होती है,
आसमान भी कहां फर्क करता है।
बराबर सब को दिखता है,
किसी को आकाश,
किसी को ‘काश’ मिलता है।

फूल भी कहां फर्क करते हैं,
चढ़ायो ख़ुदा पर यां कब्र पर,
बराबर खुशबू देते हैं।

हां
कुदरत सब की होती है,
ज़मीन सब को मिलती है।
बने घर यां घऱौंदा,
कहां फर्क करती है।
राजा हो यां रंक
आखिर में छे ग़ज ही  मिलती है।

हां,
कुदरत सब की होती है,
रात भी बराबर अंधेरा देती है।
मिले गुनाह को नकाब,
यां शरीफों को डर
कहां फर्क करती है।

धरती भी सबको मिलती है,
हों पांव में छाले,
यां गलीचा-ए-मखमल
कहां फर्क करती है।

हां
कुदरत सब की होती है,
पानी भी कहां फर्क करता है।
गंदा हो यां साफ,
बराबर प्यास बुझाता है।

हां
कुदरत सब की होती है,
ज़िंदगी सब को देती है।

कहता है वासल देवेन्द्र।
पर सांसें अपनी अपनी होती हैं
पर सांसें अपनी अपनी होती हैं।
*****
*****

शीशे की रसभरी।.. Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.Vasal


शीशे की रसभरी। Written by वासल देवेन्द्र।..D.K.VASAL.

हर अपना,
खुबसूरत कहता था मुझे।
इसी यकीन पर,
कभी शीशा नही देखा,

अपने कहां,
द़ाग देखते हैं अपनों का।
इसी वहम में  मैंने कभी,
उनका द़ाग नही देखा।

हर कोई अपना है मेरा,
बस ईसी उम्मीद पर जिया।
इसी भरोसे पर कभी,
किसी का इम्तिहान नां लिया।

कुछ गलतफहमियां,
अच्छी हैं जीने के लिए
पर मैं तो पूरा ही,
गलतफहमियों में जीया।

वो तारीफ के बांघते थे पुल मेरे,
उनकी ज़ुबान पे भरोसा किया।
ये सोच कर सच्चे इंसान हैं वो,
मैंने ख़ुद को नज़र अंदाज़ किया।

नां देखा कभी खुद को शीशे में,
उनकी ऩजरों को आईना समझता गया।
यकीन से कर ली धुंधली आंखें अपनी,
बस धुंध में ख़ुद को देखता गया।

भरोसा हो यां वहम
टूट जाता है इक दिन।
कहता है वासल देवेन्द्र,
जो गिर गये नज़र से अब।
नां उठेंगे फिर किसी दिन।

हर तारीफ़ थी उनकी,
शीशे की रसभरी।
चमकती रही तब तक,
जब तक नां मैंने चख़ी।

कहते थे मुझे अपना,
जो बुलंद आवाज़ में।
चुपके से भी नही रखते
अब अपने ज़हन में।

देर हो चुकी अब,
पहचानने में उन्हें।
ख़ुदा देगा उनका गिरेबान,
इक दिन हाथ में मेरे।

पूछूंगा उनसे उस दिन मैं,
मेरी नेकी का सिला।
कर के भला उनका,
भला मुझे क्या मिला।

मिलने की कुछ उम्मीद से,
नहीं किया था भला।
पत्थरों के दिलों से,
अब क्या करूं गिला।
*****

दौड़ो दौड़ो मन्दिर दौड़ो। Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.Vasal

दौड़ो दौड़ो मन्दिर दौड़ो। Written by  वासल देवेन्द्र। D.K. Vasal
दौड़ो दौड़ो मन्दिर दौड़ो।

दौड़ो दौड़ो मन्दिर दौड़ो,
दौड़ो गिरिजाघर , गुरुद्वारे भी।
भीतर अपने नहीं मिला तो,
ख़ुदा मिलेगा कहीं नहीं।

मन्दिर का मतलब,
मन के अन्दर।
नहीं मिला जो अपने अन्दर,
तो मन्दिर मिलेगा कहीं नहीं।

भागते फिरते खोजते उसको,
जो हर पल रहता अपने अंदर।
जैसे ढूंढता हिरण खुशबू को
रख कस्तूरी अपने अंदर।

नासमझी इतनी हमारी,
हैं कहते ख़ुदा हर जगह पे है।
फिर कैसे दूर मन्दिर में बड़ा ख़ुदा,
पास के मंदिर छोटा है।

दूर के ढोल सुहावने होते,
ये हम सब जानते हैं।
बाहर के खड़ताल बजाते रहते,
भीतर सन्नाटा रखते हैं।

कैसे मिलेगा हमें ख़ुदा,
कोई जान नां पाया है।
जिसने भी पा लिया ख़ुदा,
नां लौट जहां में आया है।

बना मुर्ख जो बताते हैं,
रास्ता हमें पाने का ख़ुदा।
हैरत होती है वासल देवेन्द्र को,
क्या उन्होंने  है पा लिया ख़ुदा।

मत उलझो बातों में इनकी,
कहता है वासल देवेन्द्र।
करते हैं हम कोशिश अपनी,
ढूंढने का भीतर अपने ख़ुदा।

भाव होता है बस अंदर,
बाहर बस दिखावा है।
नहीं माप सकता कोई,
कितनी मां के अंदर ममता है।

छोटा बड़ा जो भी है,
ख़ुदा रहता बस अपने अंदर।
कहां ढूंढोगे तुम ख़ुदा,
क्या हाथ बजा पायें खड़ताल।
जो बची नां रुह तुम्हारे अंदर
जब भाव बचा नां कोई भी अंदर।

दौड़ो दौड़ो मन्दिर दौड़ो,
दौड़ो गिरिजाघर, गुरुद्वारे भी।
भीतर अपने नहीं मिला तो
ख़ुदा मिलेगा कहीं नहीं।।
******

चांद फिर निकला। Written by वासल देवेन्द्र।..D.K. VASAL


चांद फिर निकला।…. Written by वासल देवेन्द्र..
D.k. Vasal
चांद फिर निकला

चांद फिर निकला ,
सुना है रात हो गई।
किसने किसको कहा,
नही मालूम।
क्यों करूं मालूम,
मेरी तो दिन में ही
रात हो गई।

सुना है,
जब साफ हो आसमान
तो रौशन करते हैं,
सितारे भी आसमान।

मेरा तो ग्रहण में है आफ़ताब (सूर्य)
क्या करेंगे रौशन,
ये टिमटिमाते सितारे,
ये हल्के फुल्के जुगनू,
कितना भी आसमान हो साफ।
जब ग्रहण में हो आफ़ताब ( सूर्य )।

जानता हूं क्या कहता है,
सूर्य का ये ग्रहण।
ओ वासल देवेन्द्र तूं सुन,
वक्त कर सकता है,
प्रकृति के हर रंग का हनन।
क्या हुआ,
जो जीवन तेरा हुआ बेरंग।
कहां पूछता है वो,
चांद- सूरज से,
लगाने से पहले ग्रहण।

रोता है चांद भी,
हर रात।
देख कर अपना दाग़,
है नहीं कोई ज़िंदगी बिना दाग।

पत्तों पर गिरी ओस को,
देख समझ गया वासल देवेन्द्र।
रात फिर रोया है चांद,
देख कर अपना दाग़।

नही कोई ज़िंदगी,
बिना छोटे यां बड़े दाग।
फर्क सिर्फ इतना है,
किसी की दुश्मन है हवा,
और किसी की दुश्मन है आग।

शायद ये काली रात,
कुछ और कहना चाहती है मुझे।
चांद निकले यां ना निकले
सितारे टिमटिमायें,
यां नां टिमटिमायें,
सूरज निकलेगा ज़रूर
तोड़ कर ग्रहण के सब साये।

शायद वो कहना चाहता है
ओ वासल देवेन्द्र।
ज़िंदा रहना होगा तुझे,
अब आंसूओं के साथ।
सूरज निकलता है जैसे,
बरसते बादलों के साथ।

याद रख,
इन्द्रधनुष भी,
आता है तभी।
तुझे तो दिखती है,
लाडले की सूरत,
इन्द्रधनुष में भी।
जैसे हो बैठा वो,
हरि के मोर मुकुट में ही।

चांद फिर निकला,
सुना है चांदनी हो गई।
मेरी तो बिना चांद ही
रात हो गई।
***

उम्मीदl… Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.VASAL

उम्मीद… Written by वासल देवेन्द्र।
D.K.VASAL
उम्मीद।
हर रिश्ते में,
एक उम्मीद बसी रहती है।
जब तक नां आज़मायो,
ज़िंदा रहती है।

वो डोर,
जिसे उम्मीद कहते हैं।
बहत नाज़ुक होती है,
इस्तेमाल से पहले ही,
टूट जाती है।

यूं ही नहीं कुदरत ने,
पतझड़ को बनाया।
वर्ना कैसे पता चलता,
कौन अपना कौन पराया।

पतझड़ में ही,
रिश्तों की परख होती है।
वर्ना बरसात में तो,
हर पत्ती ही हरी होती है।

रिश्ते दूर के हों यां करीब के,
उससे क्या फर्क पड़ता है।
जो वक्त पे काम आये,
समझो वही एक रिश्ता है।

नां जाने कहां गए,
जो हुआ करते थे रिश्ते तब।
झूठी हंसी, झूठे आंसू, फरेब नज़र,
बस मतलब के रह गये सब।

समझदार हो गया है हर कोई,
हाथ मिलाते ही भांप लेता है।
हैसियत दूसरे की,
तय कर लेता है फिर तभी,
उम्र उससे रिश्ते की।

वक्त पड़ने पर समझोगे,
क्या कहता है वासल देवेन्द्र।
रिश्ते अब कुछ नहीं,
इक धोखा है बस।

ये वो चिराग है,
जो जलता नहीं,
दिखता है बस।
तेल  के रंग का,
पानी है इसमें।
बादल के रंग की,
बाटी है बस।

एक खुबसूरत झूठ है ये,
इक धोखे की नुमाइश है बस।
तुम मानोगे मेरी बात तब,
खुद खायोगे ठोकर जब।

हर रिश्ते में,
एक उम्मीद बसी रहती है।
जब तक नां आज़मायो,
ज़िंदा रहती है।
*****







जज़्बात.. Written by वासल देवेन्द्र। D.K.Vasal

जज़्बात Written by वासल देवेन्द्र। D.K.VASAL
जज़्बात।

इमारतें ऊंची होती गई,
जज़्बात ज़मीन में दफ़न होते गए।
किसी भी मंज़िल से देखो तुम,
फासले कुछ नां कुछ बढ़ते गये।

कसूर नां ईमारत का है,
नां ईंट और पत्थर का।
हम ईंट पत्थर में इतना उलझ गए,
कि हमारे दिल ही पत्थर में बदल गये।

हर लगती हुई ईंट ने,
दीवार बना दी।
उस मासूम को क्या पता था।
कि उसने मजबूत रिश्तों की,
दीवार गिरा दी।

फासले अगर फासलों से बढ़ते,
तो ग़म नां था।
फासले जब दिल से बढ़े,
तो ग़म कम नां था।

कोई ग़ैर जो आता रिश्तों में,
तो ग़म नां था।
ये बेज़ुबान बेजान पत्थर जो आये,
तो ग़म कम नां था।

ईंट पत्थर के मकान तो हैं,
अब सब के पास।
कहता है वासल देवेन्द्र,
जिसे कहते थे हम घर,
वो नज़र नहीं आते।
बिना बुलाए जो दोस्त,
घर में घुस आते थे।
अब बुलाने पर भी,
वो दोस्त नहीं आते।

वो जो नाम से ज़्यादा,
गाली दे कर बुलाते थे।
अब दुआ सलाम को भी
नहीं आते।
बस दूर से हिला देते हैं,
हाथ अपना।
गिला शिकवा करने भी
नहीं आते।

यूं फासले दिलों के बड़ गये,
खोल कर दिल।
जो सब कुछ बता देते थे,
अब दबी ज़ुबान में भी,
कहने से डरते हैं।
नां मिले एक रोज़ जो दोस्त,
तो नाराज़गी लबों पर रखते थे।
कहीं मिल नां जाये वो दोस्त हर रोज़
अब रास्ते बदल कर चलते हैं।

मन बहुत जल्द भर जाता है,
रिश्तों से अब।
बच गया है जो कुछ भी,
है मजबूरी का सब।
मन से मुंशी हो गया है हर कोई,
अपने से ज्यादा।
दूसरे की दौलत का,
हिसाब रखता है अब।

कितने दिलों में रहूं,
पहले सोचते थे सब।
कितनी ऊंची ईमारत में रहूं,
सब सोचते हैं अब।

जज़्बात की अब,
कौन कदर करता है।
बस जेब की गहराई को,
सलाम करता है।
हर ज़ज्बाती इन्सान को,
मूर्ख कहता है।
दिल तो अब पत्थर का है,
कहां घड़कता है।

जज़्बात तो अब दफ़न हो गये,
कहता है वासल देवेन्द्र।
दिल की परवाह अब कौन करता है,
दिल की परवाह अब कौन करता है।।
***

कुछ तो जरूर हुआ होगा।

कुछ तो जरूर हुआ होगा। Written by वासल देवेन्द्र। D.K.Vasal.
कुछ तो जरूर हुआ होगा।

दर्द जब बढ़ा मेरा,
रुक गया मैं।
मुड़ा ज़रा,
देखने को अपने,
गुनाह ज़रा।

यूं ही नहीं दर्द बढ़ा होगा,
कुछ तो ज़रूर हुआ होगा।
कोई बड़ा गुनाह हुआ होगा,
यां ख़ुदा को धोखा हुआ होगा।

कुछ तो जरूर हुआ होगा,
कहां मैंने कुछ सोचा होगा।
कहां दर्द को याद किया होगा,
बस सिर्फ गुनाह किया होगा।

झांकते कहां हैं हम खुद में,
ख़ुदा से कम नहीं समझते ख़ुद को।
इसी वहम में कोई गुनाह किया होगा,
यां आज़माया किसी बददुआ को होगा।

कुछ तो जरूर हुआ होगा,
यूं ही रुठा नहीं ख़ुदा होगा।
बख्श देता है वो गुनाह सबके,
मेरा गुनाह जो नही बख्शा,
तो गुनाह बहुत बढ़ा होगा।

कुछ तो जरूर हुआ होगा,
किसी ने ख़ुदा को पुकारा होगा।
हो तंग मेरे जुल्मों सितम से,
इन्साफ ख़ुदा से मांगा होगा।

कुछ तो गुनाह हुआ होगा,
देने को बददुआएं मुझे,
यां गिनने को गुनाह मेरे
गुना अपनी हाय (गुना×ह)को किया होगा।

कुछ तो जरूर हुआ होगा,
कोई बड़ा गुनाह हुआ होगा।
करुणा से भरे ख़ुदा को भी,
मजबूर मैंने किया होगा।
देने से पहले दर्द मुझे,
वो करुणानिधि भी रोया होगा।

नहीं करनी आती दुआ मुझको,
कैसे माफ़ी मांगू मैं।
बख्श दे। बख्श दे। बख्श दे,
बस इतना ही कहूंगा मैं।

है पापी बहुत वासल देवेन्द्र,
पर तूं तो है सबका ख़ुदा।
तूं समझ हुई पूरी मेरी सज़ा,
बख्श दे। बख्श दे। बख्श दे
ओ मेरे ख़ुदा।

दर्द जब और बढ़ा,
मैं रुका, कुछ मुड़ा।
देखने को अपने गुनाह ज़रा।
*****

TODAY 6 MONTHS WHEN MY BELOVED SON GIRISH LEFT ALONE AND LEFT US ALONE.


तन्हाई.. जहां सबके घर शीशे के हैं।
Written by वासल देवेन्द्र।..D.K.VASAL
तन्हाई… जहां सबके घर शीशे के हैं।

सोचता है वासल देवेन्द्र,
क्यों नां मैं?
ऐसी बस्ती में बस जाऊं,
जहां बस अजनबी ही बस्ते हों।
नां कोई गिला नां शिकवे हों।
नां उम्मीद कोई नां टूटने का डर,
जहां सबके घर शीशे के हों।
जहां अपना नां हो कोई मेरा,
नां समझे कोई दर्द मेरा।

नां पूछे कोई हाल मेरा,
नां झूठी दे मुस्कान मुझे।
नां कहे कोई दीवाना अब,
नां सियाना कहे कोई मुझे।

जहां भीड़ तो हो लोगों की पर,
सब हों अपनी तन्हाई में।
नां  दुःख में साथ हो कोई,
नां साथ दे मेरी तन्हाई में।

यूं भी तो संसार में अब,
नां गलियां हैं नां कूचे हैं।
मकान ही बच गये हैं बस,
हर घर में बस दीवारें हैं।

तस्वीरों से मोहब्बत है,
ज़िंदा इन्सानों से प्यार नहीं।
कुछ तेरा है, कुछ मेरा है,
हम सब का यहां,
अब कुछ भी नहीं।

यहां धूप भी सब की अपनी है,
और छाया भी अपनी अपनी।
नां छत किसी की सांझी है,
नां एक ही सब का मांझी है।

भीड़ ही भीड़ बची है बस,
अंदर सबके तन्हाई है।
मजबूरी के सब रिश्ते हैं,
दूरी से बस यादें हैं।
शोरो गुल में रहते हैं,
सन्नाटे से शिकायतें हैं।

हालात भी हमने बदले हैं,
हालात नें हमको बदला नहीं।
ज़ुबान से सारे अपने हैं,
पर दिल से अपना कोई नहीं।

फांसले सब में इतने हैं,
कहता है वासल देवेन्द्र।
मेरे आंसू बस मेरे हैं,
तेरे ज़ख़्म बस तेरे हैं।
मेरा दर्द बस मेरा है,
तेरी पीड़ा अब तेरी है।

फिर क्यों नां बस जाऊं वहां,
जहां सब अजनबी रहते हैं।
नां उम्मीद कोई नां टूटने का डर,
जहां सबके घर शीशे के हैं।
*****

सीने से लगने वाले।


सीने से लगने वाले… Written by वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL

हर चीज़ बेचते हैं बाज़ार में,
आज कल के बेचने वाले।
हो नई यां पुरानी।
ढूंढा मैंने भी बहुत,
पर नही मिलते अब,
वो सीने से लगने वाले।।

दर्द बांटते थे सब,
हों अपने यां पराये।
अब एक भीड़ है बस,
हैं सब उसका हिस्सा।
उस भीड़ में खो गये,
सब अपने सब पराये।

किसी से अपना भी सुनना,
अब अपना नहीं लगता।
हर शब्द,
मतलब की चाशनी में डूबा लगता।

कहा मुझसे उसने,
फिर ढूंढता हूं बाज़ार में।
शायद मिल जायें कहीं,
वो सीने से लगने वाले।

आ गया वो जल्द ही,
लौट के वापिस।
और बोला,
बाज़ार सारा कहता है,
दीवाना मुझको।
क्या ढूंढता है तूं,
इस मतलब के दौर में।
ठीक जो देगा कीमत तो,
मिल जायेंगे तुझे,
हज़ार यहां,
सीने से लगने वाले।
मुफ्त में,
अब कुछ नहीं मिलता।
सब मर गये,
वो दिल से, सीने से लगने वाले।

और बोला,
बाज़ार कहता है मुझसे,
ये बाज़ार है,
नई और पुरानी चीजों का।
नहीं बाज़ार है ये,
दिल जैसी नकारा चीज़ों का।

मैंने कहा।
सच ही तो कहता है बाज़ार,
बिना मतलब,
अब कौन करता है आदाब।
मुस्कुराहट भी देंगे,
तो मांगेंगे कीमत।
कहां  बची किसी के पास,
अब अपनी मुस्कुराहट,
लेकर वो भी आयेंगे
किसी से उधार।

समझ गया वासल देवेन्द्र,
मैं ग़लत हूं।
जो ढूंढने निकला,
वो सीने से लगने वाले।
जब सीने ही नहीं बचे,
तो कहां मिलेंगे,
सीने से लगने वाले।
****

OH, LORD BE MY ANCHOR.


OH LORD, BE MY ANCHOR. WRITTEN BY वासल देवेन्द्र।..D.K.VASAL.
OH, LORD, BE MY ANCHOR.

OH, LORD!
I WISH TO ANCHOR INTO,
YOUR DIVINE POWER.
UPON ME  BESTOW,
YOUR BENIGN SHOWER.

I HAVE REALISED,
NEVER BEFORE EVER.
THIS WORLD IS FULL OF,
STORIES OF HORROR.
DAY AFTER DAY,
MY HEART SINKS LOWER.

HURRY UP IS THE WORD,
THAT COMES TO MY MIND.
HELP, PLEASE HELP,
BECOME MY GUIDE.
REMAIN WITH ME,
SIDE BY SIDE.

FALSE PRIDE,  NOTIONAL WEALTH,
SHALLOW MIND, EMPTY LIFE.
ARE BOUND TO CHASE ME,
TILL LAST BREATH.

YOU ARE KIND, KIND AND KIND,
REQUESTS VASAL DEVENDER.
PLEASE  INTRUDE INTO MY MIND,
NO OTHER THOUGHT,
SHOULD REMAIN WITH ME,
EXCEPT MY ANCHOR AND YOU DIVINE.

OH, LORD !
YOU KNOW,
I AM WEAK AND POOR.
NOT  ABLE TO ENDURE,
YOUR DISCIPLINARY HAMMER.
GIVE ME STRENGTH,
SO I CAN BEAR.
TREAT ME LIKE SON,
AS IF YOUR DEAR.

PLEASE IGNORE,
MY TRIFLING LAPSE.
I AM YOUR SON,
GIVE ME YOUR LAP.

I PRAY FOR HELP,
BE MY ANCHOR TILL MY DEATH.
I WILL SURELY REACH YOUR GATES,
IF I DIE IN THAT STATE.

I AM A FOOL,
AND AWFULLY DUFFER.
YOU KNOW,
WISE ARE ALWAYS,
FEW IN NUMBER.
I BOW, BOW,
AND FULLY SURRENDER.
I PRAY I PRAY,
PLEASE BE MY ANCHOR.
***

कृष्णा कृष्णा।

कृष्णा कृष्णा… Written by वासल देवेन्द्र.. D.K.Vasal
कृष्णा कृष्णा।

सूरज निकले कह कृष्णा कृष्णा।
डूबा चांद कह कृष्णा कृष्णा।
सितारे हुये मद्धम कह कृष्णा कृष्णा।
भोर हुई कह कृष्णा कृष्णा।
पक्षी बोलें कहें कृष्णा कृष्णा।
पवन चले कह कृष्णा कृष्णा।

बाग़ भी बोले कृष्णा कृष्णा।
पुष्प भी बोले कृष्णा कृष्णा।
चारों ओर बस कृष्णा कृष्णा।
हर ‘श’ में है बस कृष्णा कृष्णा।

अन्न के हर अंश में कृष्णा।
पानी की वाणी में कृष्णा।
बादल की हर बूंद में कृष्णा।
धरती बोले कृष्णा कृष्णा।
आकाश भी बोले कृष्णा कृष्णा।
तुम भी बोलो कृष्णा कृष्णा।
मैं भी बोलूं कृष्णा कृष्णा।
तुम में कृष्णा मुझ में कृष्णा।
सृष्टि के हर कण में कृष्णा।

कहता है वासल देवेन्द्र।
तूं सुन ले मेरी पुकार ओ कृष्णा।
मेरे सांसों की लय भी बोले।
देह में खून की हर बूंद भी बोले।
झपकती हुईं मेरी पलकें बोलें।
जबसे जन्मा तब से बोलें।
मृत्यु शय्या पर भी मैं बोलूं।
तूं मेरा मैं तेरा कृष्णा।

खाली झोली खाली घर।
खाली रिश्ते खाली संसार।
हर मेरी वो सांस बेकार।
जो सांस नां बोले कृष्णा कृष्णा।

नां झपके फिर पलक वो मेरी।
जो पलक नां बोले कृष्णा कृष्णा।
देह में मेरी खून बेकार।
जो खून नां बोले कृष्णा कृष्णा।

खुली आंख में मेरी कृष्णा।
बंद आंख में भी है कृष्णा।
नहीं चाहिए मुझे होश वो ऐसा।
जो होश नां बोले कृष्णा कृष्णा।

नहीं मांगता कुछ भी तुझ से।
बस जीवा पे हो कृष्णा कृष्णा।
इतना वादा तो कर ले कृष्णा।
प्राण छुटें जब देह से मेरी।
लब पे हो बस कृष्णा कृष्णा।
लब पे हो बस कृष्णा कृष्णा।
******

रंग लाल।… Written by वासल देवेन्द्र।…D.k.Vasal


रंग लाल।
बहुत गहरा है ये रंग,
नाम है इसका लाल रंग।

खून का भी है रंग लाल।
यूं ही नहीं सब कहते हम,
बेटे अपने को मेरा ‘ लाल’।

छिन जाये तो बहुत मलाल,
मलाल में भी छिपा है ‘ लाल ‘।
अग्नि में भस्म हो गया ‘ लाल ‘,
विकराल अग्नि का रंग भी लाल।

खुदा से गुस्सा तो आंखें लाल,
जन्म मरण में यम है दलाल।
दलाल में भी छिपा है लाल,
यम ने ले लिया मेरा ‘ लाल ‘ ।

सुहागन की चूड़ी भी लाल,
मांग में उसकी रंग है लाल।
माथे की बिंदिया भी लाल,
होठों की मुस्कान भी लाल,
मेहंदी का निकले रंग लाल।

लुट जाये जो सुहाग किसी का,
मांग से मिट जाता रंग लाल।
मिट जाती वो बिंदिया लाल,
छिन जाती मुस्कान वो लाल,
मेहंदी  नां करती हाथ फिर लाल।

आंखों की है नींद भी लाल,
मेरे ज़ख्मों का रंग भी लाल।
हर सुबह होता सितारों का खून,
यूं ही नहीं होता आसमां लाल।

जा कर दूर मेरे लाल ने,
छीन लिया मेरा रंग लाल।
सफेद हो गया चेहरा मेरा,
दिखता था पहले जो लाल।

कुछ तो है तुझ में रंग लाल,
अस्थियां बांधे कपड़ा लाल।
अस्थियां रखें मटका जैसे लाल,
खून से गाड़ा है वो रंग,
जिसे कहते हम सब रंग वो लाल।

मां लक्ष्मी को पसंद रंग लाल,
हनुमान जी का प्रिय रंग लाल।
मां दुर्गा की चुनरी लाल,
प्रार्थना है मेरी तुझसे कृष्णा,
गोद में रखना मेरा ‘ लाल ‘।
गोद में रखना मेरा ‘ लाल ‘।
******

तारीफ के पुल पर।

तारीफ के पुल पर।.. Written by वासल देवेन्द्र.. D.K. Vasal.
तारीफ के पुल पर।

चलो ज़रा सम्भल कर,     
तारीफ़ के पुल पर।
बहती है नदी मतलब की,
पुल के तल पर।

फिसल ना जाना तुम कहीं,    ,
तुम रहो खबरदार।
नही बचायेगा कोई,        
फिसले जो एक बार।         
हैं वक़्त बहुत नाज़ुक,    
है हवा भी बहुत तेज।
यहां उड़ रहे हैं रिश्ते,           
ले  ले कर नया वेश।   

बदल रहा है मौसम,      ,
फिरो ना भागे भागे।
क्यों चल रहे हो तुम,    ,
हवाओं से आगे।
आती थी पहले  बरसात,  
हो आई महबूब जैसे।
अब करती है बर्ताव,        ,
वो हम से गैरों जैसे।

होते थे पहले रिश्ते,       
साफ  पानी की तरहां।
अब है सिर्फ धोखा,        
इक दलदल की तरहां।
पूछते हैं वो मुझसे,         
है नहीं  यकीं मेरा।
कहता है वासल देवेन्द्र, 
अब सब कुछ बदल गया।
बच गया अब बस,         ,
कुछ तेरा कुछ मेरा
रहते थे जिन्दा रिश्ते।      
नई सांस की तरहां,
मिट जाते हैं अब रिश्ते,
गुज़री सांस की तरहां।
रहो जागते यहां,       ‌     ,
आधे सोये की तरहां।
रहो आधे जिंदा,          ‌‌    ,
आधे मुर्दे की तरहां।
चलो तारीफ के पुल पर,  
अपाहिज की तरहां।
मिल जाये शायद कोई,
बैसाखी की तरहां।
*****

यादें…हर मुर्दा है ज़िंदा।


यादें…हर मुर्दा है ज़िंदा।…
Written by वासल देवेन्द्र D.K.Vasal.
यादें…हर मुर्दा है ज़िंदा।

जिंदगी बस,
यादों का डेरा।
और क्या है यहां,
तेरा और मेरा।
हालात जब भी,
डराते हैं मुझको।
छिपा लेता है मुझे,
यादों का घेरा।

ये बस यादें ही हैं,
जीने का सहारा।
हों उजड़े चमन की,
यां बरखें बहारां।
हों सुखे मौसम की,
यां बारिश की फुहारां।

बिना यादों के,
इन्सान कुछ भी नहीं।
नां हों यादें तो,
हमारा कुछ भी नहीं।

हम रहें नां रहें,
वो रहती हैं हमेशां।
हर मुर्दे को रखती हैं,
ज़िंदा हमेशां।

बिना यादों के,
हर ज़िंदा भी मुर्दा।
यादों के सहारे,
हर मुर्दा भी जिंदा।

याद रखने की,
हमको जरुरत नही।
भूल जाने की,
इन्सानी फितरत नहीं।
बस जाये जो,
दिल में एक बार।
भुलाना फिर उसको,
मुमकिन नहीं।

हर याद रहे याद,
ये ज़रूरी तो नहीं।
हर याद भूल जाये,
ये भी तो नहीं।
छन छन कर,
आती हैं बार बार।
बिना इजाज़त,
रुलाती हैं बार बार।

आती हैं वक्त नाज़ुक की,
तो रुलाती हैं बहुत।
अगर हों हंसने की,
तो रुलाती हैं और भी।

यादें तो हैं,
गुज़रे वक्त का लम्हा।
वापिस आ सकता नहीं,
भुलाया जा सकता नहीं।

यादे साफ हों  यां धुंधली,
सब लगती हैं भली।
हों लिखी स्याही काली से,
यां लाल से,
सब रहती हैं हरी।
हैं रहती खटखटाती,
मेरे मन को हर  घड़ी।

वो पतंग की डोर,   
वो लट्टू की डोरी।
सुनाई मेरी मां ने,     
जो प्यारी सी लोरी।
था सांवला कन्हैया, 
और राधा थी गोरी।
वो दोस्तों की टोली, 
वो बिन मौसम की होली।
कन्हैया ने भिगोदी,  
मां राधा की चोली।

उस गुज़रे ज़माने की,
आती है बहुत याद।
खटखटाती है मेरे मन को,
यादे वो बार बार।

आती है मुझे याद,         
उन दिनों की हर शाम।
होता था लाल आसमान, 
तब भी हर शाम।
दिन तब भी था उजला,   
और काली थी रात।
नां बदली ये धरती,        
नां बदला आकाश।
बदल गया वक्त,
बदल गये हालात।

हैं वासल देवेन्द्र में,
वो यादें सब भरी।
वो यादें हैं अपनों की,         
हमेशां रहती हैं हरी।

बिना यादों के,
इन्सानकुछ भी नहीं।
नां हों यादें तो,
हमारा कुछ भी नही।
हम रहें नां रहें,
वो रहती हैं हमेशां।
हर मुर्दे को रखती,
वो ज़िंदा हमेशां।
******

सिर्फ सच केवल सच।

सिर्फ सच, केवल सच… Written by वासल देवेन्द्र..D.Vasal
बहुत बहुत कड़वा सच,
पुराणों की वाणी का सच।
AN ABSOLUTE CHASTE TRUTH
सिर्फ सच- केवल सच।

सच लिखूंगा, सिर्फ सच,
सच के सिवा, कुछ भी नहीं।
ले लेना तुम, जान मेरी,
अगर नहीं ये, केवल सच।

कहते हैं खुद ईश्वर ही,
और उनके अवतार सभी।
कथांयें उनकी और लीला सभी
देती हमें सीख जीने की।

सोचा वासल देवेन्द्र ने,
मैं भी सीख लेता हूं कुछ।
पड़ा मैंने इतिहास को फिर,
युगों युगों से कलियुग तक।

क्या हुआ था मां पार्वती को,
जब शिव ने किया था प्रहार,
और गणेश ने खोये अपने प्राण।

बिलख बिलख कर रोती थी वो,
बोली तब मां पार्वती।
जैसे तैसे कुछ भी करो,
बस जीवित कर दो मेरा गणेश।
नहीं तो मैं भी दे दूंगी,
प्राण अपने ओ प्राणपति।

क्या हुआ था शिव को तभी,
जब सती (पार्वती) हुई भस्म जभी।
बेहोशी में हो दीवाने शिव ने,
हिला दी पूरी सृष्टि तभी।
छोड़ दिया सब काम अपना,
पशुपति ने एक पल में तभी।

ये सब हुआ युगों से पहले,
नां त्रेता था नां कलियुग तभी।
अब जब आया त्रेता युग,
राम को भी आना था अभी।

क्या हुआ था राम को,
होने पर मुर्छित लक्ष्मण के।
बोले वो विभीषण से,
मैं तोड़ता हूं अपना वचन अभी।
नां उठा जो लक्ष्मण तो,
मैं दे दूंगा अपने प्राण तभी।

नां जाउंगा अयोध्या मैं,
नां करुंगा रण मैं अभी।
डूबता है तो डूब जाये,
सूर्यवंश का नाम अभी।
जो कहते हैं सूर्यवंशी सभी,
प्राण जाए नां वचन कभी।

तब आया फिर द्वापर युग,
खुद आये मेरे हरि (कृष्णा) तभी।
क्या हुआ था तब अर्जुन को,
देख मरा पुत्र अभिमन्यु को।
बदले के भाव से वो बोला,
मार दूंगा जयद्रथ को,
यां कर दूंगा मैं भस्म खुद को।

देख कर ये सारा इतिहास,
सोचता है वासल देवेन्द्र।

क्या सीखूं मां पार्वती से,
बैठ जाऊं मैं करके ज़िद।
जैसे तैसे लाओ गिरीश ( मेरा पुत्र),
चाहे लगा दो गज का शीश।

क्या सीखूं शिव से मैं,
छोड़ दूं सब काम काज,
डूबा रहूं बस दुख में मैं।

क्या सीखूं राम से मैं,
तोड़ दूं अपना वचन,
छोड़ दूं  हरि नाम को मैं।

क्या सीखूं अर्जुन से,
बदले का भाव यां आत्मघात।

देख कर ये सारा इतिहास,
सच कहता है वासल देवेन्द्र।
भगवानों से अच्छा है,
कलियुग में हरि का इन्सान।

यूं ही नहीं कहता वासल देवेन्द्र,
ज्ञान सबका सिर्फ ज़ुबानी।
जब गुजरेगी खुद पर यारो,
तब पूछूंगा कितने ज्ञानी।
भूल जाओगे ज्ञान गीता का,
भूल जाओगे तुम गुरुबाणी,
बाईबल, कुरान की सब कहानी।

सब कुछ कहा सच है मैंने,
झूठी नहीं है कोई कहानी।
ये सब तो हैं सची कहानी।
ये सब तो है सच्ची कहानी।।

सीखूंगा मैं जरूर तो कुछ,
इतिहास से ही सीखूंगा मैं।
आदत है वासल देवेन्द्र की,
हर पल नया सीखना कुछ।

मीरां से दीवाना होना,
शबरी से सीखूं इन्तज़ार।
भक्त सुदामा से मैं सीखूं,
निस्वार्थ हर पल हरि का नाम।

कवि हूं मैं, हूं कहता कविता,
सच कहना है मेरा काम।
कड़वा हो यां मीठा सच,
कहता हूं मैं पूरा सच।
सिर्फ सच केवल सच।।
*****

‘ ण’

‘ ण ‘ ….. written by वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL
‘ ण ‘
संस्कृत में ‘ण’ हिंदी में न,
ज़रा ध्यान से देखो समझो,
क्या कमाल का है ये ण।

ण बिना हैं कृष्ण अधूरे,
ण बिना अधूरे विष्णु,
ण बिना नां नारायण,
ण बिना नां कोई वैकुणठ।
ण बिना अधूरा ब्रम्हाणड,
ण बिना नां वेद उच्चारण,
ण बिना नां कोई कल्याण।

ण बिना नां कोई प्राणी,
ण बिन नां गुण अवगुण,
ण बिना नां कोई मरण,
ण बिना नां कृष्ण शरण।

ण बिना नां कोई पुण्य,
ण बिना नां कोई ब्राह्मण।
ण बिना नां कर्म काण्ड,
ण बिना नां आवागमण।

ण बिना नां श्रवण कुमार,
ण से निकले दशरथ प्राण।
ण बिना नां कोई हिरण,
ण बिना नां सीताहरण।

ण बिना नां रामायण,
ण बिना नां स्वरूपणखा।
ण बिना नां कोई लक्ष्मण,
ण बिना नां कोई आभूषण।
ण बिना नां सीता की चूड़ामणि,
ण बिना नां शबरी पे करुणा,
ण बिना नां रामबाण,
ण बिना नां रावण मरण।

ण बिना नां कोई रण,
ण बिना नां कुम्भकरण।
ण बिना नां कोई दण्ड,
ण बिना नां रावण घमणड
कहता है वासल देवेन्द्र,
ण के साथ जायेंगे प्राण,
ण बिना नां राम शरण।

ण बिना नां कोई गण,
ण बिना नां कोई गणेश,
ण बिना नां गणाधयक्ष।
ण बिना नां ब्रह्माचारीणी(मां पार्वती),
ण बिना नां शिव का नीला कण्ठ।

ण बिना नां कोई कर्ण,
ण बिना नां कर्ण  कुण्डल।
ण बिना नां आचार्य द्रोण,
ण बिना नां पाण्डु पुत्र।
ण बिना नां कोई पाण्डव,
ण बिना नां एकलव्य दक्षिणा,
ण बिना नां अर्जुन निपुण।

ण बिना नां नारायणी,
ण बिना नां वैष्णवी।
कहता है वासल देवेन्द्र,
ण बिना नां कुछ अखण्ड,
ण बिना नां कुछ पूर्ण,
ण से ही जग क्षणभंगुर।

ण बिना नां सौरभमण्डल,
ण बिना नां उजली किरण।
ण बिना नां कोई पूर्णिमा,
ण की पूर्णिमा रात का गुण।

ण  बिना नां वर्णमाला,
ण  बिना नां कोई व्याकरण।
ण बिना नां टिप्पणी कोई,
ण बिना नां कोई वर्णन।
ण बिना नां रणनीति,
ण बिना नां कोई राणा।

शूरू करूं विष्णु से यां,
रुक जाऊं चाणक्य पे।
देखूं आचरण आज का मैं,
कहता है वासल देवेन्द्र,
ण बिना नही कुछ पूर्ण,
ण ही है सम्पूर्ण ब्रह्मांड,
ण से क्षणभंगुर ब्रह्मांड।
****””*

कृष्णा ने खेली खून की होली।

कृष्णा ने खेली खून की होली।
कृष्णा ने खेली खून की होली… Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal.
कृष्णा ने खेली खून की होली

कृष्णा ने भी खेली होली,
सब अपनों से खेली होली।
कभी फूलों से कभी रंग से,
कभी ख़ून से खेली होली।

राधा संग रंगों से खेली,
भक्तों संग फूलों से खेली।
अपनों संग मुस्कान से खेली,
महाभारत में खून से खेली।

क्या समझाया कृष्ण ने हमको,
जैसा संग हो वैसी होली।
दोस्तों संग रंगों की होली,
हो अपनों संग हंसी की होली।
और महाभारत में खून की होली।

खो कर कौरव पुत्र 100 ,
कौरवों की मां गंधारी ने।
तब दिया श्राप कृष्णा को,
मिलेगी सांत्वना मुझे तभी,
हो जाये विनाश यदुवंश का जो।

सर झुका कर कृष्णा बोले तब,
है मुझे स्वीकार मां श्राप तेरा।
होगा ये कथन पूरा तेरा,
हो जायेगा  यदुवंश नाश मेरा।

पर सुन माता मेरी गाथा तूं,
इस संसार में होता जो भी कुछ।
सहता सब कुछ मैं ही हूं,
लगे चोट किसी को भी,
खून बहता बस मेरा ही।

कहना चाहते थे कृष्णा,
सैनानी का घाव भी मैं हूं।
महारथियों का ज़ख्म भी मैं हूं,
दुर्योधन की टूटी जांघ भी मैं हूं।

दुशासन की छाती का लहू भी मैं हूं,
भीष्म को चुभते बाण भी मैं हूं।
बहे लहू चाहे किसी के घाव से,
है बहता वो मेरे अंग से।

विधवाओं का दर्द भी मैं हूं,
माताओं की चीख भी मैं हूं।
अनाथों का लूटा संसार भी मैं हूं,
पिता की निकली कराह भी मैं हूं।

तुम्हारे भीतर रोता एक रिश्ता,
मेरे भीतर रोती ये धरती।
मेरे भीतर रोता आकाश,
तुम्हारे साथ रोते बस अपने,
मेरे भीतर रोता संसार।

कहना कृष्ण (भगवान) का है सब सत्य,
पर हैरत होती है वासल देवेन्द्र को।
कैसी कृष्णा ने खेली होली,
कौन खेलता है ऐसी होली?
जैसी कृष्णा ने खेली होली।

नही करते कृष्णा गलत कभी,
कुछ कारण तो होगा तभी।
जो अपने ही खून से खेली होली,
हां अपने ही खून से खेली होली,
हां कृष्णा ने खेली खून की होली।

देख हालत कृष्णा की तभी,
कहता है वासल देवेन्द्र अभी।
आओ खेलें हम भी होली,
बिना मौसम की खेलें होली।
ग़रीब संग करूणा की होली,
कृष्णा संग आत्मा की होली।
कहे पुकार उसे आत्मा मेरी,
तूं मेरा ..मैं तेरी हो..  ली।
तूं मेरा मैं तेरी हो….ली।
****

SECRET ALWAYS IS THAT REASON.

SECRET ALWAYS IS THAT REASON…
Written by …वासल देवेन्द्र.. DK.VASAL
SECRET ALWAYS IS THAT REASON

SECRET ALWAYS IS
THAT REASON.
NOTHING HAPPENS
WITHOUT A REASON.

NOTHING HAPPENS
WITHOUT A REASON.
WE ONLY WITNESS
CHANGE OF SEASON.
CHANGE OF SEASON
HAS A REASON.

KNOWING IT TO BE
IRRATIONAL REASON.
BELIEVES VASAL DEVENDER
WITHOUT AN OPTION.
THERE WAS A GOOD REASON
FOR HIS SON’S
EARLY EXTINCTION.

GOOD OR BAD
IS A COLOUR OF REASON.
BAD REASON
LEADS TO DISORIENTATION.
GOOD REASON
HELPS CHANGE IN VISION.
NOTHING HAPPENS
WITHOUT A REASON.

DISORIENTATION
BREEDS AFFLICTION.
CHANGE IN VISION
CREATES NEW MISSION
ALL IS CLEAR
NOTHING IS HIDDEN.

HOW WHEN WHERE
STOPS LIFE’S ENGINE.
EVERY ONE BELIEVES
WITHOUT CONVICTION.
THIS PERHAPS IS
THE ONLY EXCEPTION.
NO ONE KNOWS
GOOD OR BAD.
SECRET ALWAYS
IS THAT REASON.
****

ओ कृष्णा।

ओ कृष्णा…. WRITTEN BY वासल देवेन्द्र..D.K.VASAL  
ओ कृष्णा।

है सुना भी और पढ़ा भी मैंने,
जिसकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

अनंत है तूं अनंत तेरी सूरत,
समस्या है ये कृष्णा मेरी।
किस रुप में देखूं सूरत तेरी,
किस भाव से देखूं मूरत तेरी।

बैठे कदम्ब के पेड़ पर देखूं
यां बजाते तुम्हें बांसुरी देखूं।
तुम्हें यमुना के तीर पर देखूं,
यां गोपियों की चुराते चुनरी देखूं।

पाते नाम दामोदर देखूं,
यां फिर ओखल से  बंधते देखूं।
यां मुंह खोल दिखाते मां यशोदा को,
मुंह में ही ब्रह्मांड देखूं।

खेलते गेंद ग्वालों के संग,
यां तोड़ते कालिया नाग का अंग।
चुराते माखन करते हुए तंग,
यां हर पल देखूं राधा के संग।

पड़ते गुरुकुल में मित्रों के संग,
यां मित्र-भक्त सुदामा अपने के,
धोते हुए पैरों के अंग।

करते प्रणाम गुरु संदिपणी को देखूं,
यां उठा  गोवर्धन उंगली पर अपनी,
तोड़ते घमंड इन्द्र का देखूं।

करते  हुए मामा कंस का वध,
यां रूक्मणी को भगा ले जाते देखूं।
यां करते रूकम्या को गंजा देखूं
यां शिशुपाल को मारते देखूं।

ठुकराते  दुर्योधन का भोजन देखूं,
यां विदुर का खाते साग देखूं।
द्रोपदी की बचाते लाज देखूं,
यां रास लीला तुम्हें करते देखूं।

रण छोड़ तुझे  मैं जाता देखूं,
यां  समुंद्र में द्वारिका बसाते देखूं।
जरासंध को मरवाते देखूं,
यां द्वारिका समुंद्र में डूबोते देखूं।

बनते द्वारिका दीश देखूं,
यां युधिष्ठिर का संधी दूत देखूं।
बजाते पंचजनया शंख देखूं,
यां करते भीष्म को प्रणाम देखूं।

अर्जुन  का बनते सारथी देखूं,
यां दिखाते विराट रूप मैं देखूं।
बनाते अभिमन्यु को शिष्य देखूं,
यां अभिमन्यु को छोड़ कर जाते देखूं।

कवच कुंडल कर्ण के मांगते देखूं,
यां कर्ण को  ही मरवाते देखूं।
बेली से तीर खाते देखूं,
यां छोड़ कर दुनिया जाते देखूं।

पूछता है वासल देवेन्द्र ओ कृष्णा,
मैं तूझे किस रुप में देखूं।

समझ नहीं आता है कृष्णा,
कैसे और किस रुप में देखूं।
घरती यां आकाश में देखूं,
प्रत्यक्ष यां अप्रत्यक्ष देखूं।

घ्यान लगाने को है ज़रुरी,
बस तुझे एक रुप में देखूं।
समझ नहीं आता है कृष्णा,
मैं तुझे किस रुप में देखूं।
मैं तुझे किस रुप में देखूं।।
***

कभी-कभी।

कभी कभी… Written by. वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
कभी कभी।
कभी कभी सोचता हूं,
है अजीब जिंदगी उसकी।
ना हो हवा तो नां जले चिराग
हो तेज़ हवा तो नां जले चिराग
वो हवा,
जो दोस्त है उसकी,
है वो ही दुश्मन भी उसकी।

वो ख़ुदा,
जो जान है हमारी,
वो ही लेता है जान हमारी।
जब जी में आया जला दी,
जब जी में आया बुझा दी।
वो नाज़ुक सी ‘लौ ‘,
हो मेरी यां तुम्हारी।

कभी कभी लगता है,
है अजीब रिश्ता।
उस ख़ुदा से,
जो हम पुकारें,
तो वो आता नहीं।
जो वो पुकारे,
तो कोई रुक पाता नहीं।

कभी कभी सोचता हूं,
नां ख़ुदा बताता कुछ हमें।
नां जवाब देता कोई हमें,
‘ख़ुद’ से बना ‘ ख़ुदा ‘ हमारा,
फिर भी अजनबी सा रिश्ता हमारा।

कभी कभी सोचता है,
वासल देवेन्द्र।
अजीब ‘श’ है,
ये सांस भी।
जब आती है,
हम रोक पाते नही।
जब जाती है,
हम रोक पाते नही।

कभी कभी लगता है,
क्यों आये हम जहां में।
बन के एक पहेली,
रुह आई हमारी अकेली,
लौट जायेगी अब अकेली।

कभी कभी लगता है,
ये वहम है और कुछ भी नही।
हो जैसे सब हमारा,
पर सच में हमारा कुछ भी नहीं।

कभी कभी लगता है,
थोड़ी धरती,थोड़ा आकाश,
थोड़ी आग  थोड़ा पानी
है जुड़ी इसी से हमारी कहानी।
मिल जायेगी इसी में,
जान हमारी।

कभी कभी सोचता हूं,
मैं करके देखूं कोशिश दुबारा।
है यकीन मुझको पूरा,
मैं ढूंढ ही लूंगा दर तुम्हारा।
नां बचेगी फिर पहेली कोई,
मिल गया अगर जो घर तुम्हारा।
***”

कहां लिखती है कलम कभी।

कहां लिखती है कलम कभी .. Written By
वासल देवेन्द्र..D.K. VASAL
कहां लिखती है कलम कभी।

कहां लिखती है कलम कभी,
भावनायें उमड़ती हैं कवि की,
बन कर काग़ज़ पर स्याही।
महसूस कर ले वो जिस अहसास को,
वो हो जाती रचना उसकी,
कहां लिखती है कलम कभी।

रचना हो मासूम अगर,
समझो दिल से है निकली।
ले आये अगर आंख में आंसू,
समझो रुह से है निकली।

जात नही होती कवि की,
नां होती कोई सीमा उसकी।
बिना पंख और बिना उड़े,
है नज़र में सारी सृष्टि उसकी।

जैसा हो मौसम संसार का,
सुख दुःख यां खुशियां उसकी।
महसूस कर ले  वो जिस एहसास को,
वो हो जाती रचना उसकी।

नां जाने किस धातु का,
दिया दिल खुदा ने कवि का।
ख़ुशी किसी के घर भी हो,
मुस्कुराती रचना उसकी।
आंख हो अगर नम किसी की,
रोती है रचना उसकी।

देख कर कमजोर गरीब को,
करता है फरियाद कवि।
कर दया ख़ुदा  कुछ उन पर भी,
रोज़ नहीं तो कभी कभी।

कहता है वासल देवेन्द्र,
नां बनाना ख़ुदा तूं और कवि।
कवि के लिए तूं जान ले अब,
सही तेरा अब संसार नही।

खुशियां कम और दर्द ज़्यादा,
है  तेरे संसार की रीत यही।
आभास कर ले जिसका भी कवि,
हो जाये वो रचना उसकी।

एक दिन सोचा मैंने भी,
मैं भी आज लिखता हूं कुछ।
बस फिर कर ली मैंने जमा,
रंग बिरंगी स्याही और कलमें कुछ।
कोशिश बहुत करी मैंने पर,
लिख नां पाया थोड़ा भी कुछ।

पल भर में आ गया समझ में,
आसान नहीं बनना कवि।
भावनायें उमड़ती हैं कवि की,
बन कर कागज़ पर स्याही।
कहां लिखती है कलम कभी।
कहां लिखती है कलम कभी।
****

आग।

आग (एक भयानक एहसास यां विरोधाभास)
written by वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL
आग।
आग ।  आग । आग …कहां…,
कैसे…किधर , किस ओर।
घबराई हुई  नज़र ,
देखे  चारों ओर,
हुआ लाल पीला बसंती गगन,
हुईं हो जैसे भोर।
गर्म हवा और काला नाग,
दिखता था सब ओर।
था आग का सन्नाटा ,
बाकी सब शोर ही शोर।

डरा – सहमा  था हर कोई,
देख अग्नि का विकराल रूप।
होता है मुश्किल झेलना,
मौसम की तेज धूप,
स्वाभाविक था डर के कांपना,
देख अग्नि का ये  रुप।

हां, ये आग है।
हो लगी पेट में , घर में ,
समाज में यां देश में,
बुझाना तुरंत है इसका  लाज़मी।

पर  ज़रा  रुको, सोचो,
था कसूर आग का।
यां उसका,
यां जिसने लगाईं आग।

मांगते हैं पड़ोसी से,
जलाने को चूल्हा।
है क्या माचिस यां दियासलाई,
कौन कहता है ,
है ज़रूरत मुझे आग की।
लगानी पड़ती है चूल्हे में ,
बुझाने को पेट की।
है बहुत बदनाम,
पर है बहुत ये काम की।

करवाती है हवन,
और दाह संस्कार भी।
है निरन्तर जरुरत,
हमें आग की।
जलाती है खुद को,
करने को रोशनी,
जलती है धीरे धीरे
लपटों में खामोश सी।
क्या सुनी है कभी,
दर्द भरी,निशब्द चीख
उस आग की।

सुनते हैं हर रोज़,
पाना है कुछ तो,
है ज़रूरत जिगर में,
आग की।
जलाना है दीये से दीया,
तो है ज़रूरत दीये में,
आग की,
पर कहां कहते सुना है किसी को,
है ज़रूरत मुझे आग की।
हां, सुना है कहते,
है ज़रूरत मुझे आग की।
बस तभी जब लगी हो,
तलब  धुम्रपान की।

मुश्किल नही है  समझना,
है कहना वासल देवेन्द्र का।
हो बात आग की यां इन्सान की,
हो चीज़ कितनी भी जरूरी,
यां काम की।
कदर नही होती,
कभी बदनाम की।

कहती है ये आग,
जला के खुद को बार बार।
हवन हो यां दाह संस्कार,
है ज़रूरत मुझे भी नाम की।


******

ओ ख़ुदा एक बार बस एक बार।

ओ ख़ुदा एक बार बस एक बार…. Written by वासल देवेन्द्र…..D.K.Vasal.

ओ ख़ुदा,
एक बार बस एक बार,
बन कर आम इंसान तूं आ।
खो अपनी औलाद को,
फिर मुस्कुरा के दिखा।
हंसेगा वासल देवेन्द्र तुझ पर,
मार ठहाके बार बार।
वादा है तुझसे मेरा ये,
ओ मेरे ख़ुदा।
कभी तो यूं खुद को भी,
तूं ज़रा आज़मा।

मैं नहीं जानता,
क्या तेरी जन्नत में,
है सबसे कीमती।
पर इस जहां में,
नहीं कुछ,
दिल के चिराग से कीमती।

ओ ख़ुदा क्यों तूने,
ये पाप किया।
करने को अपनी जन्नत रोशन,
अंधेरा मेरे घर किया।
जन्नत में यूं भी रोशनी,
कहां कम थी पहले भी।
जो मेरा था  एक चिराग,
तूने वो भी ले लिया।

कैसे चुका पायेगा,
मेरा उधार तूं ख़ुदा।
इस बार उधार तूने,
बहुत बड़ा ले लिया।
तूं ख़ुद नही जानता,
ये तूने क्या किया।
चिराग ले लिया,
दर्द दे दिया।
घर आंसूओं से मेरे,
समंदर कर दिया।

मैं जानता हूं औकात मेरी,
और हस्ती भी जानता हूं तेरी।
जब कुछ नां कर सका बच्चा,
सुन कर बड़े से बात बुरी।
बस दूर से फैंकना पत्थर,
थी बच्चे की एक मजबूरी।

समझ गया होगा तू भी,
क्या मंशा है मेरी।
तेरी नां इंसाफी ने,
है बढ़ाई हिम्मत मेरी।
जानता हूं रुतबा तेरा,
और जानता औकात मेरी।
फिर भी पत्थर उठाने की,
तूं देख ले ज़ुरत मेरी।
अब तो ज़रा समझ जा तूं,
खो कर जवान बेटा अपना।
मां बाप की हो गई,
कितनी मजबूरी।

करने को अपनी जन्नत रोशन,
अंधेरा मेरे घर किया।
बस एक बार बस एक बार,
बन कर आम इंसान तूं आ।
खो अपनी औलाद को,
फिर मुस्कुरा के दिखा।
****

आंख मिचौली।

आंख मिचौली….. Written by वासल देवेन्द्र…D.K. Vasal.
आंख मिचौली ।

खेलता रहता है मेरा खुदा भी,
मुझसे आंख मिचौली।
है उसका ये खेल भी निराला,
मैं ढूंढता हूं तो वो,
छिप जाता है।
मैं छिप जाऊं तो वो ,
नज़र नही आता।

मैं कुछ भी नही ,
पर उसकी नज़र में हूं ।
वो सब जगह है ,
फिर भी नज़र नही आता।
यां तो वो खेल खेलता है,
इक तरफा,
यां मुझे खेलना नही आता।

सुना है वो तो एक,
महबूबा की तरहां ,
दिल में रहता है।
झुकायो ज़रा गर्दन,
तो नज़र आता है।
मेरी गर्दन तो कभी,
झुकती ही नही।
शायद इसीलिए वो ,
नज़र नही आता।

सुना है झुकता है वो ,
अपने भक्तों के आगे,
मुझे खुद मुझमें,
भक्त नज़र नही आता,
शायद इसीलिए वो,
मुझे नज़र नही आता।

चलो ढूंढता हूं उसे ,
घरती आकाश और पाताल में।
पर सुना है वो ,
बिना मन की आंख के ,
नज़र नहीं आता।

अब याद आता है,
मां कहती थी,
मन लगा कर पढ़।
जो भी करता है
मन लगा के कर,
अब समझा।
पर  देर से समझा,
बिना मन लगाये,
खुदा नज़र नही आता।

कहां आता है,
वासल देवेन्द्र का,
मन काबू में।
काम, क्रोघ, लोभ,
और मोह में ऐसा उलझा है।
कि उसे खुद के सिवा,
कुछ नज़र नही आता।
इसीलिए तो वो खुदा,
नज़र नही आता।
वो सब जगह है,
फिर भी नज़र नही आता।
****

बहुत भोला है इन्सान।

बहुत भोला है इन्सान.. Written by वासल देवेन्द्र..
D.K.Vasal

बहुत भोला है इन्सान,
नही निकला,
रोशनी की तलाश में।
जब तक,
अंघेरा नां मिला राह में।

मासूम बहुत है इन्सान,
कद्र बहुत  कुदरत की करता है।
सूरज को चढ़ाता जल,
धरती को करता नमन।
रहता हवाओं के रुख में,
पुकारता नदियों को मां हर पल।

नदियां जो तोड़ें संयम,
खुद को दोष देता है।
आंधियों को भी अक्सर,
हवाओं नाम देता है।

उगले आग
यां बरसाये ओले।
वो कहां आसमां को,
दोष देता है।

सागर तोड़ कर मर्यादा,
मिला दें ख़ाक में हजारों।
जैसे हों रेत में लिखे वो नाम,
कहां कहता है वो,
सागर को शैतान।

पहाड़ गिरे यां हिले धरती,
आये भुकंप यां टूटे बांध।
नही कहता वो कुदरत की गलती,
जानवर मरें यां मरें इन्सान।

हवायें उजाड़ दें पेड़ का घर,
बिखर जायें जब पत्ते सब।
नही हवाओं से बदलता रिश्ता,
रहता खामोश सब सह कर।

कहां बदलता है रिश्ता,
ज़ालिम और मज़लूम का।
ज़ालिम हवाओं के आगे,
क्या ज़ोर चले,
धरती में गड़े पेड़ का।

ख़ुदा दे सांसें गिन गिन कर,
कहां हिसाब मांगता है।
खुदा को भी बस,
बिना सवाल मानता है।

अजीब इन्सान हैं,
वासल देवेन्द्र।
खो जाये जो कुछ,
दोष कर्मों को देता है
मिल जाये जो कुछ,
शुक्रिया खुदा का करता है।

बहुत मासूम है इन्सान,
उजाला जो करे सूरज,
शुक्रिया अदा करता है।
पर रात अपनी,
दीये से ही रोशन करता है।
कहां वो सूरज से,
सवाल करता है।

अकेले पन को सुकून कहता है,
पत्थर के बुत को भी ख़ुदा कहता है।
रात के अंधेरे को भूल कर,
चमकती हुई च़ीज को चांद कहता है।
अपने जो चले गए छोड़ कर,
उन्हें चमकते सितारे कहता है।

बहुत भोला है इन्सान,
रोशनी भी करने से पहले।
अंधेरे का इन्तजार करता है।
मेहनत से मिले को भी,
मुकद्दर का दिया कहता है।

नदियां तोड़ें संयम,
यां सागर तोड़े मर्यादा,
कहां कुछ कहता है।
कभी चुप रह कर,
कभी रो कर,
बस.. सहता  है।

बहुत भोला है इन्सान,
करने से पहले रोशनी,
अंधेरों का इन्तजार करता है।
ख़ुदा को भी बस यूं ही मानता है
कहां कोई सवाल करता है।
***

ये ज़रूरी तो नहीं।

ये ज़रूरी तो नहीं…. Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
ये ज़रूरी तो नहीं।

सम्भाल कर रखना,
ज़िन्दग़ी के हर लम्हें को।
हर अगले लम्हें में हो ज़िन्दग़ी,
ये जरूरी तो नही।

माना हर रात की,
होती है सुबह।
हर कोई देख पाये हर सुबह,
ये ज़रूरी तो नहीं।

हैं बहुत दर्द मेरे सीने में,
खुद़ा देखे मेरे हर दर्द को।
हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

मैं चाहूं  जितना ख़ुदा को,
ख़ुदा भी चाहे उतना मुझको,
ये ज़रूरी तो नहीं।

जब रूठ जाये ख़ुदा मुझसे,
क्यों नां मैं भी रुठ जाऊं उससे।
मैं मनाऊं उसे हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

तुम ज़ख्म दो,
मुझे बार बार।
मैं मुस्कुराऊं हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

तुम पुकारो,
मुझे बार बार।
मैं ठहर जाऊं हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

घनें बादल जो,
आयें बार बार।
वो बादल बरसें हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

बूंदें जो गिरें बार बार,
वो सीप में दें मोती।
हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

गिरें ज़मीन पे बीज,
बार बार।
हर बीज पे खिले कली हर बार,
ये जरूरी तो नहीं।

माली सींचे बाग,
बार बार।
हर बाग में हो बहार हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

दीवाली तो आये,
बार बार,
हर किसी की हो दीवाली हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

होली तो आये,
बार बार,
उड़े होली में गुलाल हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

हर रात का सवेरा हो
बार बार,
वासल देवेन्द्र देखे वो सवेरा हर बार,
ये ज़रूरी तो नहीं।

मैं चाहूं जितना ख़ुदा को,
खुद़ा भी चाहे उतना मुझको,
ये ज़रूरी तो नहीं।

सम्भाल कर रखना,
ज़िन्दगी के हर लम्हें को।
हर अगले लम्हें में हो जिंदगी,
ये ज़रूरी तो नहीं।
****

झूठी थी बचपन की कहानी।

झूठी थी बचपन की कहानी… Written by…वासल देवेन्द्र D.k. Vasal.

दादी ने सुनाई थी जो कहानी,
झूठी थी वो बचपन की कहानी।
एक था राजा एक थी रानी,
दोनों मर गये खत्म कहानी।
वासल देवेन्द्र ने देखी और जानी,
वो बतलाता है वही कहानी।

एक था राजा एक थी रानी,
दोनों मिले शुरू हुई कहानी।
एक हुआ बेटा एक हुई कन्या,
राजा रानी जैसे हो गये धन्य ।

जीवन गुज़रा बड़ी कहानी,
श्रृतुयें थी अब आनी जानी।
एक ने कहा दूजे ने मानी,
ऐसे चलती रही कहानी।

गुज़रे दिन महीने और साल,
गूज़रा बचपन बढ़े हुये लाल,
पंख लगा जैसे उड़ गए साल।

एक उन्होंने बनाया घर,
सुन्दर उसमें बनाया मन्दिर,
हरि रहते उसके अन्दर।

राजा रहता ईश्वर के नाम,
करती रानी भी पूजा पाठ।
बच्चे भी जपते हरि का नाम,
हरा भरा रहता हरि का धाम।

फिर इक दिन आया ऐसा तुफ़ान,
छोड़ा उसने ज़हरीला बाण,
ले लिये उसने लाडले के प्राण।

राजा रानी ग़म में डूबे,
लगे पूछने खुदा से सवाल।
जिन्दगी तो है आनी जानी,
पर पूरी तो करता हमारी कहानी।
कुछ झिझका और फिर वो बोला,
मैंने लिखी ही ये अधूरी  कहानी।

श्रृतुयें अब भी आती जाती,
राजा रोता रानी रोती।
अब फूल नहीं खिलते बगिया में,
नां भंवरे आते बगिया में।

अब नही  आती कभी  बहार,
सूना लगता सब संसार।
झूठी थी बचपन की कहानी,
एक था राजा एक थी रानी,
दोनों मर गये खत्म कहानी।

नां मरा राजा नां मरी रानी,
चला गया बस लाडला उनका,
अधूरी रह गई उनकी कहानी।

फिर याद आई नानी की कहानी,
थी तोते में राक्षस की जान।
मारना हो राक्षस को अगर तो,
ले लो तुम तोते की जान।

वो भी निकली झूठी कहानी,
मर गया तोता मरा नही राक्षस।
मरने पर तोते के भी,
नहीं निकली राक्षस की जान।

बुढ़ापे में आया समझ में मेरी
दादी झूठी नानी झूठी।
झूठी सब होती हैं कहानी,
हो तोते -राक्षस की कहानी।
यां हो राजा रानी की कहानी,
झूठी सब बचपन की कहानी।
**

बस ढूंढता रहता हूं मैं।

बस ढूंढता रहता हूं मैं।
महीने हो चुके अब तो दो….. वासल देवेन्द्र… Written by D.K.Vasal

महीने हो चुके अब तो दो,
सोचते होगे तुम सब तो।
सम्भल गया होगा वासल देवेन्द्र,
हो गया होगा चुप रो रो कर वो।

नहीं नहीं नहीं है ये सच,
हर पल रहते आंसू पलकों पर।
बहता रहता है एक झरना,
हवा के झोंके से हिल ही जाते,
याद में उसकी बह ही जाते।

जब तक ज़िंदा हूं रहेगा घाव,
खून रहेगा वहां से रिसता।
नही समझ पायेगा कोई,
क्या था मेरा उससे रिश्ता।

बेटा नहीं था केवल मेरा,
दोस्त यार था वो तो मेरा।
कभी हूं ढूंढता दोस्त अपना,
और कभी ढूंढता बेटा अपना।

हक है मेरा रोने पर तो,
याद भी मिटा सकता नहीं।
मत दो मुझे सांत्वना लोगों,
मत छीनो तुम हक़ ये मेरा।
घाव लगा है इतना गहरा,
शब्दों की मलहम भर सकती नहीं।

मत आना लोगो पास मेरे,
अच्छा नहीं इन्सान हूं मैं।
बच कर चलना परछाई से मेरी,
बदनसीबी का दूसरा नाम हूं मैं।

कभी कभी लगता है ऐसे,
जैसे आसमान से देख ख़ुदा।
हंसता हो वो ज़ोर ज़ोर से,
देख मुझे रोता हुआ।

जानता हूं अपनी जिम्मेदारी,
तभी तो ज़िंदा बचा हूं मैं।
दर्द होती हर दम सीने में,
नहीं हर पल छिपा सकता हूं मैं।

दर्द ही दर्द है मेरे पास,
खाली करने को मेरा सीना।
शब्दों में उड़ेलता रहता हूं मैं,
कभी ढूंढता दोस्त अपना,
कभी बेटा ढूंढता हूं मैं।

नही आयेगा मुझे नज़र अब,
फिर क्यों ढूंढता रहता हूं मैं।
पूछा मैंने खुद से जब,
जवाब मिला अन्दर से तब।

ख़ुदा भी तो नहीं आता नज़र,
फिर क्यों ढूंढते रहते हम सब।
हैं ढूंढते रहते हम सब ,
खो जाये कुछ अपना जब।

बस वैसे ही मैं रहता ढूंढता,
हर  पल ढूंढता रहता हूं मैं।
कभी ढूंढता दोस्त अपना,
और कभी बेटा ढूंढता हूं मैं।

कैसे कब सम्भलूंगा मैं,
मैं खुद जानता ही नहीं।
भरोसा था मुझे जिस खुदा पे,
वो मुझे पहचानता ही नहीं।

यां नज़र है उसकी आंसू से धुंधली,
यां पहचान में नहीं आता हूं मैं।
कभी ढूंढता हूं दोस्त अपना,
कभी  बेटा ढूंढता हूं मैं।
****






ताश के पत्ते।


ताश के पत्ते…. Written by वासल देवेन्द्र..
D.K.Vasal.
ताश के पत्ते।

बाटंता है ख़ुदा मुकद्दर ऐसे,
जैसे बंटते हैं ताश के पत्ते।
उठा कर गड्डी मुकद्दर की,
और काट के उसे प्यार से।
बिना करे फिर फर्क कोई,
बांटता जैसे ताश के पत्ते।

कोई नही जान पाता कभी,
क्या मिलेंगे उसको पत्ते।
गुलाम, बादशाह, बेगम,
ईका यां  फिर छोटे पत्ते।

रंग बिरंगे मिलेंगे पत्ते,
यां मिलेंगे एक रंग के पत्ते।
अलग नम्बर के मिलेंगे पत्ते,
यां एक नम्बर के होंगे वो पत्ते।

बदल नही सकते हैं हम,
एक बार जो मिल गये हमको पत्ते।
हम ये भी नही जान पाते कभी,
क्या दूसरे खिलाड़ी के होंगे पत्ते।

नही अधिकार हमारा पत्तों पर,
हों दूसरों  के यां अपने पत्ते।
नही जीत सकते हम तब तक,
जो कमजोर नहीं दूसरे के पत्ते।

ये पत्ते हैं हमारा भाग्य,
और वक्त है खिलाड़ी दूसरा।
कभी भारी हमारे पत्ते,
कभी भारी वक्त के पत्ते।

थोड़ा थोड़ा कुछ देर तक,
हम नाचें कूदें देख कर पत्ते।
पर जल्दी आ जाता है समझ,
भारी पड़ेंगे वक्त के पत्ते।

बंट गये एक बार जो पत्ते,
खुदा नहीं बदल सकता वो पत्ते।
रो लो चाहे हंस लो जितना,
मिलने थे जो मिल गये पत्ते।

खेल कोई भी हो ताश का,
जरूरी हैं मिलें अच्छे पत्ते।
चतुर हों कितने भी खिलाड़ी,
जीतते हैं बस अच्छे पत्ते।

भरने वाले जेबों को सभी,
खेलते रहते बलाईंड लालच में।
सोच के वो हैं खिलाड़ी अच्छे,
एक ही झटके में जब सब लुट जाता।
कहता है वासल देवेन्द्र,
समझो खोले वक्त ने पत्ते।
समझो खोले वक्त ने पत्ते

खूद़ा बांटता मुकद्दर ऐसे,
जैसे बंटते ताश के पत्ते।
*****

कौन था वो?

कौन था वो… Written by वासल देवेन्द्र.. D. K. Vasal
कौन था वो।

पूछा मैंने एक ग्वाले से एक दिन,
कैसे पहचानते हो गायें अपनी तुम।
इन सैंकड़ों-हजारों गायों की भीड़ में,
बोला वो ग्वाला तब मुझसे।
जैसे इन लाखों की भीड़ में,
पहचानते अपने बच्चे तुम।

मैंने बोला,
हर चेहरा होता हमारा अलग,
ऐसे पहचानते अपने बच्चे हम।
ग्वाला बोला,
तुम देखो अगर नज़रों से मेरी,
मुझे दिखती अपनी गायें अलग।

सोचा वासल देवेन्द्र ने मैं भी सीख लूं, 
इस ग्वाले से ये अजीब हुनर।
कैसे पहचानते हैं अपनों को,
जब दिखते हों वो एक से सब।
कोशिश की मैंने बहुत,
पर सीख नां पाया मैं वो हुनर।

अब ढूंढता रहता हूं आकाश में,
वो सितारा जो बन गया लाल मेरा।
हज़ारों सितारों में कैसे ढूंढूं,
है कौन सितारा लाल मेरा।

सीख लेता अगर हुनर मैं,
उस ग्वाले से पहले ही।
ढूंढ लेता आकाश में,
है कौन सितारा लाल मेरा।

फिर लगता है शायद,
थी वो हरि की इच्छा ही।
जो सीख नां पाया मैं वो हुनर,
अब हर सितारा लगता है मुझको,
जैसे हो वो लाल मेरा।

अलग चमकता है वो आकाश में,
हो जैसे वो ध्रुव तारा।
क्यों नां चमके? क्यों नां चमके?
कौन था वो? कौन था वो?
वो था मेरी आंख का तारा,
था  वो मेरी आंख का तारा।

चिन्ता नां कर मेरे बेटे,
चमक रहेगी तेरी तब तक।
है जब तक खड़ा आकाश वहां।
कमजोर पड़ी जो नज़रें मेरी,
नहीं रुकने दूंगा ख़ोज वहां।

सितारों में ही नहीं बस,
मैं ढूंढता हूं तुझे इन्द्रधनुष में।
चेहरा तेरा खिलता था ऐसे,
जैसे रंग हों इन्द्रधनुष में।

लाल पीला हरा सतरंगी,
रहते सब वो रंग थे तुझमें।
दिखता है आकाश में ऐसे,
जैसे मोर मुकुट हो कृष्ण के अंग में।

अच्छा है नहीं सीख पाया मैं,
उस गवाले से वो नया हुनर।
तूं हर सितारे में दिखता है अब,
और मोर मुकुट में हरि के अब।
***

विश्वास नहीं होता है कृष्णा।

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विश्वास नहीं होता है कृष्णा।

विश्वास नहीं होता है कृष्णा… Written by वासल देवेन्द्र…D.K.Vasal.
विश्वास नहीं होता है कृष्णा।

सच कहता हूं कृष्णा तुझसे,
झूठ नही कह सकता मैं।
विश्वास नहीं होता है मुझको,
व्यवहार किया जो तुने मुझसे।

ज़ुबान नहीं थकती थी मेरी,
कृष्णा कृष्णा कहते कहते।
पागल सा कर दिया है मुझको,
छीन कर मेरा बेटा मुझसे।

लगता था जैसे तूं है मेरा,
कुछ ग़लत मेरा हो सकता नहीं।
अब लगता वो वहम था मेरा,
कहां रिश्ता था तेरा मेरा।

तूं मालिक धरती आकाश का,
और मैं भिखारी तेरे द्वार का।
भूल थी मेरी मैं रहा समझता,
तूं भूखा है केवल भाव का।

तू तो है बस एक भगवान,
और वासल देवेन्द्र एक अधना इन्सान।
भूल गया था औकात मेरी मैं,
चला जोड़ने रिश्ता तुझसे।

कहां जोड़ा तूने कभी रिश्ता,
कहां निभाया तूने कोई रिश्ता।
सब पागल हैं जो ये समझते,
पा लेंगे तुझे हंस के यां रो के।

अपनी धुन में रहता तुझे पूजते,
क्या करता रहता है तूं???
थक जाते लोग पूछते पूछते,
नां हाथ नां मुंह थकते थे मेरे,
तेरे नाम की माला जपते।

छीन कर सबसे प्यारी चीज़,
कहता है तुम रहो खामोश।
लुट जाये संसार अगर भी,
मत खोना तुम अपना होश।

इन्सान हैं हम भगवान नहीं,
जो हंसते रहें सब खो कर भी।
जिस दिन सीख लेंगे हम वो,
बन जायेंगे हम भगवान सभी।
फिर होंगे हम इन्सान नही,
और तूं अकेला भगवान नहीं।

कहां समझा पाया तूं अर्जुन को,
दिखा कर रुप अपना भगवान।
सुना दी तूने पूरी गीता,
क्या मिला अर्जुन को ज्ञान?
कहां मिला अर्जुन को ज्ञान?

खो बैठा था होश अर्जुन भी,
मरने  पर बेटा अभिमन्यु।
भूल गया वो तेरा रूप,
और जो भी तूने दिया था ज्ञान।

विश्वास नहीं होता मुझको तो,
कि यही थी गीता और उसका ज्ञान।
सब रटते रहते हैं जिसको,
जैसे रटती तोते की ज़ुबान।

एक बार समझा जा कृष्णा,
कहता है वासल देवेन्द्र।
कैसी थी वो गीता तेरी,
और कैसा था उसका ज्ञान।

मैं भी तो समझ लूं तुझसे,
क्यों अर्जुन नहीं समझ पाया वो ज्ञान।
क्यों छोड़ नहीं पाया अर्जुन,
मोह अपना और अपना अभिमान।

प्रार्थना है वासल देवेन्द्र की,
कोई तो दे मुझे उत्तर इसका।
मन नही करता अब मेरा,
पढ़ने को गीता और उसका ज्ञान।

प्रश्न पूछना हक है मेरा,
सोच समझ कर देना जवाब।
ध्यान से समझना प्रश्न मेरा,
देने से पहले कोई जवाब।

विश्वास नहीं होता है कृष्णा,
तुम करोगे मुझे से ऐसा व्यवहार।
मैं हर पल रहता खोया तुझमें,
बस तूं ही था मेरा संसार।

ओ कृष्णा तूं कुछ तो बोल,
नहीं दे पायेंगे कोई उत्तर।
ये आंख मूंद सब पढ़ने वाले,
तोते की तरहां बस रटने वाले।

धरती बोले यां बोले आकाश,
कोई तो होगा प्रकृति में तेरी।
जिस पर होगा तुझको विश्वास,
नहीं  पढूंगा गीता तेरी,
जब तक नां मिले मुझे सारांश।

विश्वास नहीं होता है कृष्णा,
तुम करोगे मुझ से ऐसा व्यवहार।
हर पल रहता खोया तुझमें,
बस तूं ही था मेरा संसार।

****

डर लगता है डर लगता है।

डर लगता है डर लगता है… Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
डर लगता है डर लगता है।
छलनी कर गया सीना मेरा,
दे गया मुझे वो घाव जितने।
भीष्म को नां मारे होंगे,
अर्जुन ने भी बाण इतने।

हर घाव रोता है बारी बारी,
है रिसता रहता ज़ख्मो से,
हर दम ये ख़ून मेरा।
सब देखो, सब देखो,
कितना हूं बेशर्म बाप।
देख लाश बेटे की अपने,
ज़िंदा हूं अब तक मरा नहीं।

झूठ नही लिख सकता हूं मैं,
रोते रहते हैं हम तीनों।
मां बाप और पत्नी उसकी,
बैठता रहता है दिल सबका,
देख देख तस्वीर उसकी।

कैसे मर सकता हूं मैं,
रहना है मुझको ज़िंदा।
करने को बड़ी उसकी निशानी,
स्याही की जगह जो दे गया खून,
लिखने को मुझे एक नई कहानी।

इतिहास में लिखना दुनिया वालो,
बेशर्म वासल देवेन्द्र की कहानी।
मरा नही वो बेटे संग,
रहा ज़िंदा लिखने को नई कहानी।

सच कहता हूं, सच कहता हूं,
भय लगता है भय लगता है।
जैसे आस पास ही मेरे अब तो,
डर बसता है डर बसता है।
परछाई से अपनी डर लगता है।
डर लगता है डर लगता है

हवाओं में अब चारों ओर,
ज़हर लगता है ज़हर लगता है।
वक्त में जैसे,
यम लगता है यम लगता है।

निगाहें सब की चुभती हों जैसे,
मिलने से किसी को,
डर लगता है डर लगता है।
सन्नाटा बस,
अच्छा लगता है अच्छा लगता है

डर लगता है डर लगता है,
किसी को प्यार करने से,
डर लगता है डर लगता है।
किसी को अपना कहने से,
डर लगता है डर लगता है।

किसी को बेटा कहने से,
डर लगता है डर लगता है।
कांपती रहती है रुह हर दम मेरी,
जैसे आस पास ही मेरे तो अब,
डर बसता है डर बसता है।

हर पल रोने को,
मन करता है मन करता है।
नां कोई रोके नां कोई टोके,
आंसू पीने को,
मन करता है मन करता है।

रहना है मुझको ज़िंदा पर,
मर जाने को,
मन करता है मन करता है।
अब तो जैसे आस पास ही
डर बसता है डर बसता है
****

ग़लत समय तुम आये कृष्णा।

ग़लत समय तुम आये कृष्णा.. Written by वासल देवेन्द्र.. D.K.Vasal
गलत समय तुम आये कृष्णा,
आना था तुम्हें कलियुग में।
तुमने चुना एक अर्जुन,
जो समझ नां पाया तुम्हारा ज्ञान।
हो गया वो पूरा ही विचलित,
एक अभिमन्यु के मरने से।

यहां हर घर में रहता है अर्जुन,
हर पल मरें अभिमन्यु यहां।
सम्भाल लिया तुमने अर्जुन को,
करने से  आत्मघात वहां।
कौन सम्भाले यहां अर्जुन को,
कौन सुने फरियाद यहां।

तुमने देखी एक महाभारत,
है कलियुग में हर पल महाभारत।
हर पल लुटती है द्रोपदी यहां,
तुम गिन नही सकते कितने दुर्योधन,
हर गली में मिले दुशासन यहां।
तुम ग़लत समय में आये कृष्णा,
आना था तुम्हें कलियुग में।

सम्भाल नही पाते तुम भी,
इस कलियुग की महाभारत को।
यहां हर सुबह निकलता अर्जुन,
दो रोटी कमाने को।
अधर्मी यहां हैं फलते फूलते,
वही होता था जब तुम थे वहां।
राज भोगा दुर्योधन दुशासन ने ही,
बस अनाथ बच्चे और विधवा ही,
मिली युधिष्ठिर को प्रजा वहां।

100 गाली खाने पर शिशुपाल से,
तुम खो गये थे घीरज अपना।
बोले तब तुम बुआ कुन्ती से,
अब मैं नही छोड़ूंगा इसे।
निकाल कर अपना चक्र सुदर्शन,
फिर मार दिया तुमने उसे।

अगर आते तुम इस युग में,
हज़ार मिलते शिशुपाल यहां।
थक जाते तुम गिनते गिनते,
कितनी गाली और गिनती कहां।
ग़लत समय तुम आये कृष्णा,
आना था तुम्हें कलियुग में।

यहां नहीं मिलती राधा तुमको,
नां मिलते बलराम यहां।
यहां राधा नही ओड़ती चुनरी,
नां बाहुबली में राम यहां।
नां मिलते तुम्हें भीष्म वो,
हों वचनों के पक्के जो।
वचनों की तो बात कहां,
हर शपथ होती झूठी यहां।

तुमने देखा एक धृतराष्ट्र,
यहां चारों ओर सिर्फ धृतराष्ट्र।
वो धृतराष्ट्र था आंखों से अंधा,
यहां आंखों वाले हैं धृतराष्ट्र।
ग़लत समय तुम आये कृष्णा,
आना था तुम्हें कलियुग में।

शास्त्र कहता है तुम आओगे फिर अब,
इस बार कलगी अवतार में।
कब आओगे तुम ज़रा बता दो,
पूछता है  वासल देवेन्द्र।
जब चलती होंगी सांसें मेरी,
यां निकल जायेंगे प्राण तब।
ग़लत समय तुम आये कृष्णा,
आना था तुम्हें कलियुग में।
***

छोड़ो मोह के धागे।

छोड़ो मोह के धागे… WRITTEN BY वासल देवेन्द्र..
D.K.Vasal
छोड़ो मोह के धागे।

सब कहते हैं भूल जाओ अब,
और बढ़ो तुम आगे।
शायद वो नहीं जानते,
क्या होते हैं मोह के धागे।
होते दायरे छोटे मोह के,
पर मजबूत होते हैं उसके धागे।

बचपन से कहते बढ़ाओ मोह अपनों में,
फर्क है जो गैरों में अपनो में,
बस फर्क उतना ही प्यार और मोह में।
प्यार सब करते औरों से भी,
पर मोह होता बस अपनो से ही।

जानते हो क्यों बड़ा हाथी भी,
तोड़ नही पाता,
कमजोर रस्सी की एक बेड़ी को।
बचपन से हैं उसे सिखाते,
तुम तोड़ नां पाओगे इस रस्सी को।

मरता है जब एक कौवा,
मोह में इकट्टे कौवे रोते।
क्या देखा कभी कबूतर-चिड़ियो को,
मोह के वश में हों  कभी रोते ।

सुन लो ज़रा घ्यान से तुम भी,
ईश्वर कृपा है एैसी कौवे पे।
शास्त्रों में आता काक भुशुणिड,(उत्तर काण्ड – रामचरितमानस)
नही कोई कथा कबूतर चिड़ियों पे।

मत उलझो तुम शब्दों के खेल में,
है कहता वासल देवेन्द्र।
कहने वाला हूं अब मैं सच,
कड़वा बहुत होता है सच।

आडम्बर है फर्क प्यार और मोह में,
झूठी है व्याख्या प्यार और मोह की।
बिना मोह नहीं होता प्यार,
झूठ बोलते हैं हम सबसे,
करते हैं हम तुम से प्यार।
हमदर्दी जो हम करते हैं,
हम देते हैं उसे प्यार का नाम।

ज़रा तुम मुझको समझा दो,
देख हालत राधा की बता दो।
क्या करते थे राधा श्याम,
मोह करती  थी राधा श्याम से,
यां वो करती श्याम से प्यार।

क्या चाहती थी राधा श्याम से,
कि श्याम रहें बस उसके पास।
यही होती है मोह की निशानी,
यही होती है प्यार की आस।

कैसे फर्क करें दोनों में,
जब लक्षण हैं दोनों के समान।
प्यार करो यां मोह करो,
दोनों ले लेते हैं जान।

मोह के धागे होते पक्के,
मोह के धागे इतने पक्के।
बिना मोह के धागे के तो,
बिखर जाते राधा और श्याम।

कहते हो अब छोड़ो मोह को,
और बढ़ो तुम आगे।
कैसे इन्सान छोड़े मोह को,
और बढ़े वो आगे।
बिना मोह के धागे के तो,
हो जायेंगे राधा श्याम भी आधे,
रह जायेंगे राधा श्याम भी आधे।
….

बस बदनाम है नाम मेरा।

बस बदनाम है नाम मेरा… Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal

बस बदनाम है नाम मेरा।

है चीज़ एक मैंने जाना,
जो रहती हर दम हर जगह।
नां अपना, पराया नां दोस्त उसका,
हर ‘श’ पर है राज उसका।

हर  शाम , सहर , दरबार उसका,
हो वक्त जैसे ग़ुलाम उसका।
कोई घर-बार नां कोई शहर उसका,
नां धर्म, अधर्म है कर्म उसका।

सोचता है वासल देवेन्द्र ये,
है सबसे अलग व्यापार उसका।
लेकर हमारा सब कुछ भी,
कुछ नां देना है व्यवहार उसका।

मिल जाए कहां किसी को वो,
नही जानता कोई मार्ग उसका।
है धरती, आकाश, पाताल में वो,
है हवा की तरहां ही हाल उसका।

दबे पांव आ जाती है,
ढ़ूढो तो दिखती नहीं।
रहती है हर पल आस पास,
पर  कोई एहसास देती नहीं।

नां रंग रूप नां गंध उसकी,
है नर यां मादा नां खबर उसकी।
है वो एक ही चीज़ सिर्फ ऐसी,
नही होती हार कभी जिसकी।

है मिलती जो हर जगह,
हर शहर में हर बस्ती में।
हर गली में हर कूचे में,
बूझो तो क्या है नाम उसका?

चलो छोड़ो जाने दो,
नां उलझो इस प्रश्न में तुम।
अब मैं ही बता देता हूं तुम्हें,
है “मौत” शायद नाम उसका।

पूछा मौत से,              ,वासल देवेन्द्र ने,
क्यों अचानक होता      ,आना तेरा?
हंस कर बोली             ,मौत तब,
कहां आती पहले         ,मैं वक्त से।
मैं गुलाम हूं                 ,वक्त की,
नही वक्त है                ,गुलाम मेरा।
है शरारत ये                ,सब वक्त की,
बस बदनाम है             ,नाम मेरा।
बस बदनाम है             ,नाम मेरा।
****

आईने से झूठ बोलने का हुनर।

आईने से झूठ बोलने का हुनर.. Written by वासल देवेन्द्र.. D.K.Vasal
आईने से झूठ बोलने का हुनर।

कहा किसी ने मुझसे,
है जिंदगी आईने की तरहां।
वो तभी मुस्कुराएगी,
जब  मुस्कुराओगे तुम अपनी तरहां।

ये बात नही है कोई नई,
हैं जानते ये हम सभी।
पर सच तुम भी,
जान लो अभी।
नहीं झूठ बोलता,
आईना कभी।

नहीं छिपा सकते हम,
खुद से खुद को,
करें कितनी भी कोशिश हम सभी।
दर्द हो सीने में अगर,
तो कैसे आये होंठों पे हंसी।

हां हैं हम झूठ बोलने में माहिर सभी,
तुम सिखा रहे हो नया हुनर।
कैसे बोला जाता है झूठ,
खुद से और आइने से भी।

तुम भी ज़रा समझ लो अभी,
नहीं झूठ बोलता आईना कभी।
जब ज़ख्म देखता है आईना,
तो दिखाता है ज़ख्म आईना भी।

है कहना वासल देवेन्द्र का,
अगर  हो दिल में खुशी,
आईना भी नाच उठता तभी।
जब घाव लगा दिल आये सामने,
तो आईना भी टूट जाता कभी।

मैं समझता हूं मतलब तुम्हारा,
तुम भी ज़रा समझो मुझे।
ये घाव नहीं है मामूली,
लगेगा समय संभलने में मुझे।

सम्भल भी जाऊंगा अगर मैं,
तो चाल रहेगी लड़खड़ाती।
इस उम्र में ही तो बेटा,
होता है बाप बूढ़े की बैसाखी।

जिस वक्त से गुज़र रहा हूं मैं,
वहां वक्त भी रुक गया अभी।
आंसू नहीं होते हैं पानी,
तुम सब भी जान लो ये अभी।
कहां बूझा पाते हैं वो,
जो दिल में लग जाये आग कभी।

अब नां सिखाओ मुझे झूठ बोलना,
और नां सिखाओ मुझे नया हुनर।
कैसे दूं रिश्वत शीशे को,
है वो वफादार अगर।
****

सांप–सीड़ी।

सांप –सीढ़ी.. Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal               

    (सांप — सीढ़ी)
जाने अंजाने      ,ही सही,
खेलती है          ,हर पीढ़ी।
खेल सांप          ,सीढ़ी का,
चढ़ते हैं उपर     ,तेज़ी से,   
ले सहारा          ,सीढ़ी का।
करते है नाज़     ,खुद पर,
जैसे हो हुनर     ,इस पीढ़ी का।

खेलते हैं खेल   ,पासे से,
दे नतीजा        ,हाथ भाग्य के।
उछलते हैं       ,आने पे छः,
भूल पक्ष(sides) ,पासे के छः।

हैं चढ़ता कोई          ,2 से,
और  गिरता फिर     ,50 से।
हैं गिरता कोई         ,97 से,
चढ़ कर पहले          ,7 से।

नाचता है               ,बहुत वो,
आने पर               ,क्रमशः 3 छः।
हैं अंधा वो            ,जोश में,
पहुंच गया            ,99 पर,
आने पर              ,क्रमशः 3 छः।

99 पर डसा         ,फिर सांप ने,
पहुंचा दिया          ,66 पर।
बिखर गया          ,नाज़ सब,
जो था अपने        ,हुनर पर।

ये बात नही          ,घमंड की,
यां किसी             ,अहंकार की।
नां ये पूजा           ,पाठ की,
नां ईश्वर के          ,नाम की।
नां किसी दान      ,धर्म की,
नां करुणा के       ,भाव की।

ये आदत है बस     ,वक्त की,
नही रहता सबका  ,अच्छा कभी।
वो दोस्त नही        ,किसी का कभी
हो राजा यां          ,रंक कोई।      
कब बदल ले वो    ,मिज़ाजअपना,
नही                    ,जान पाया कोई।
वासल देवेन्द्र की   ,बात छोड़ो,
वक्त से हारा         ,हर कोई।

होना था जब        ,राज तिलक,
प्रभु राम को         , हुआ बनवास तभी।
नही बता पाये       ,मुनी वशिष्ठ भी,
प्रभु राम का         ,भाग्य तभी।
मां सीता ने चाहा    ,हरना स्वर्ण मृग,
रावण ने हर ली      ,मां सीता तभी।

नहीं जानती थी        ,द्रोपदी भी,
महंगी पड़ेगी उसे     ,एक हंसी।
ये आदत है बस       ,वक्त की,
नही रहता सब का   ,अच्छा कभी।

पिलाना चाहता था   ,पानी,
अपने बूढ़े मां-बाप   ,को जबी।
नहीं जानता था       ,श्रवण कुमार,
हो जायेगी उसकी    ,मृत्यु तभी।

वक्त है ख़ुदा         ,का पयादा,( in Urdu soldier in chess is called पयादा)
है चाल उसकी      ,हर तरफ़।
नही समझ           ,पाता कोई,
ऋषि हो यां          ,मुनि कोई।

ये खेल नहीं         ,सांप सीढ़ी का,
है रहस्य ये          ,इस जीवन का।
है सीढ़ी हमारी     ,भाग्य रेखा,
और सांप नाम है  ,वक्त का।

जाने अंजाने        ,ही सही,
खेलती है            ,हर पीढ़ी।
खेल सांप            ,सीढ़ी का,
करते हैं नाज़       ,खुद पर,
जैसे हो हुनर        ,इस पीढ़ी का।
*******









काला टीका।

काला टीका… Written by वासल देवेन्द्र..D.K. VASAL.
काला टीका।

कहां माना मैंने कभी,
काले टीके का चलन।
कहां जाना मैंने कभी,
ऩजर उतारने का ऱाज।
नां जाने क्यों दिल करता है,
सब कुछ मानने को आज।

अक्सर सुना है लोगों से कहते,
उतार दो इसकी नज़र।
लगा दो इसे काला टीका,
लग जाये नां इसे किसी की नज़र।

किसकी लगती है नज़र और क्यों?
कौन लगाता है नज़र और क्यों?
कोई नही जानता ज़वाब इसका,
फिर भी हर कोई मानता है क्यों।

ज़रूर खोया होगा,
किसी ने अनमोल रत्न।
करने से पहले शूरु,
नज़र उतारने का चलन।

मजबूर बहुत करता है ये दिल,
मानने को सब कुछ हर दिन।
कभी कभी लगता है,
शायद सहम गया हूं मैं,
यां डर गया है ये दिल।

समझ में नहीं आता,
पल भर में क्या क्या बदल गया।
आसमान नहीं लगता अब अपना,
हवायें भी चुभने लगी हैं अब।
बरसात लगती है जैसे ख़ुदा के आंसू,
रोशनी भी डसने लगी है अब।

उम्मीद जैसे अंधेरों में गुम हो गई,
उम्र जैसे पल भर में गुणा हो गई।
अजीब सा लगने लगा है जहां,
जिंदगी जैसे मेहमान हो गई।

कभी कभी थोड़ा थोड़ा,
सम्भाल लेता हूं खुद को।
बिखर जाता हूं फिर मैं,
देख कर शीशे में ख़ुद को।
दिखता था वो तेरे जैसा,
शीशा जैसे कहता हो मुझको।

जब दिल करता है छूने को उसको,
खुद को प्यार कर लेता हूं।
रोते रोते हंसता हूं,
हंसते हंसते रो लेता हूं।

देख कर वक्त का चलन,
करता है वासल देवेन्द्र का मन।
जानने को नज़र उतारने का राज़,
और मानने को,
काले टीके का चलन।
**







क्या अर्जुन समझ पाया गीता को?

नहीं! नहीं! अर्जुन नहीं समझ पाया गीता को।.
Written by..वासल देवेन्द्र..D.K. Vasal.

Kindly forward as much as possible.

यदि मैं साबित नां कर पाया,
कि अर्जुन नहीं समझ पाया गीता को।
तो काट देना तुम गर्दन मेरी,
सोच ये नीच कंहा से आया।

यदि कर दिया साबित मैंने,
कि अर्जुन नहीं समझ पाया गीता को।
तो कृपा करके नां देना ज्ञान उसको,
खोया जिसने जवान बेटा उसको।

छोड़ कर अपना धनुष बाण,
बोला फिर अर्जुन कृष्ण से,
मैं नहीं लडूंगा हे गोविंद।

समझाया बहुत तब कृष्ण ने,
छोड़ो अर्जुन तुम ये मोह माया।
ये अपने परायों का बंधन,
नही मरती आत्मा कभी।
जो रहती है सब के अन्दर।

क्या सच में समझ गया अर्जुन?
जो हो गया तैयार फिर लड़ने को।
नहीं मानता वासल देवेन्द्र ये,
करता हूं कोशिश समझाने को।

बोला अर्जुन हे केशव,
मैं नहीं मारना चाहता इन सब को।
ये सब हैं मेरे अपने तो,
कैसे मारूं बोलो अपनों को।

लालच में धरा यां राज्य के,
जो मारेंगे हम इन सब को।
लगेगा पाप हमें केशव,
जो मारेंगे हम अपनों को।

बोले भगवान ओ पापरहित अर्जुन,
तूं सुन ध्यान से मेरे बोलों को।
नही मरती आत्मा कभी,
और नां वो मारती किसी को  कभी।

तूं शोक नां कर व्यर्थ का,
मैं मार चुका हूं पहले ही।
जो खड़े हैं तेरे सामने अब,
हर लूंगा तेरे पाप  मैं सब,
हों पिछले यां तूने करें हो अब।

देख प्रभु का विराट रुप,
हो गया अर्जुन अब शोकरहित।
उठाया लिया फिर गांडीव तब,
और लगा मारने सब को अब।
नहीं रोका भीम को भी,
मारने को कौरव 100 पुत्र सब।

क्या सच में समझ गया अर्जुन?
जो कहा कृष्ण ने गीता में।
नहीं मानता वासल देवेन्द्र अभी,
आसान है मारना दूसरों को,
हो अधर्म के लिए यां धर्म वंश।

ज़रा सोचो समझो ध्यान से सब,
कहता है वासल देवेन्द्र अब।
नही सोचा होगा तुमने कभी,
गीता और अर्जुन का रंग ये कभी।

सारे ज्ञाता पड़ने वाले यां,
पढ़ाने वाले गीता को।
नहीं समझते यां बतलाते वो,
अर्जुन के इस रूप को।

क्या हुआ था अर्जुन को,
सुन गीता मुख भगवान से,
क्या चला गया था मोह उसका?
क्या मिट गया था भ्रम उसका?

नहीं मानता वासल देवेन्द्र ये,
सभी ज्ञानी, उच्च ज्ञानी,
जानने वाले गीता को।
पढ़ने और पढ़ाने वाले गीता को।

खोल कान, आंख, सुनो देखो,
क्या कहता है ये अधना कवि।

होने पर रचना चक्रव्यूह की,
ले गये  जब दूर अर्जुन को।
फिर घेर सात महारथियों ने,
मारा अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को।

ज़रा सोचो समझो ध्यान से सब,
क्या हुआ तब निष्पाप अर्जुन को।
क्या कहा था अर्जुन ने सुन,
मृत्यु पुत्र अभिमन्यु की।

बोला अर्जुन रो रो कर,
होकर पूरा वो शोकग्रस्त।
यदि नहीं मारा मैंने जयद्रथ को,
होने से पहले कल सूर्य अस्त।
ले लूंगा समाधी अग्नि में,
समझ खुद को एक पिता विवश।

अर्जुन मारना चाहता जयद्रथ को,
वो कारण था अभिमन्यु मरने का।
नहीं मारना चाहता था अर्जुन,
किसी धर्म के वश,
पर केवल केवल बदले वश।

कहां ज्ञान गया तब अर्जुन का,
जो सुना था ईश्वर के मुख से।
था पापरहित उच्च आत्मा अर्जुन,
था कहना खुद ईश्वर का।

चुना था कृष्ण ने अर्जुन को,
नहीं चुना गंगा पुत्र भीष्म को।
जो रुप दिखाया अर्जुन को,
नहीं दिखाया रुप वो ब्रम्हा को।

फिर क्यों अर्जुन हुआ विचलित,
सुन ख़बर मृत्यु पुत्र अभिमन्यु की।
हुआ हाल अगर ये अर्जुन का,
सोचो व्यथा शमा ( author’s wife) और
वासल देवेन्द्र की।
खोने परअपना जवान बेटा,
क्या हाल हुआ होगा उनका।

क्यों नही अर्जुन सोच पाया तभी,
नहीं आत्मा है मरती कभी।
नही मरा है अभिमन्यु अभी,
बस देह परिवर्तन हुआ अभी।

खोने से अपना एक पुत्र,
भूल गया ज्ञान जो उसने पाया।
क्या बोला था वो कृष्ण को,
हां मेरा सब भ्रम मिट पाया।
हूं तैयार मैं युद्ध करने को।

मरते ही बस अपना पुत्र,
वो भूल गया ईश्वर रुप को।
कृष्ण मुख से निकले ज्ञान को,
यूं ही नहीं कहता वासल देवेन्द्र,
अर्जुन नही समझ पाया गीता को।

क्या ग़लत है कथन गीता का?
यां अर्जुन नहीं समझ पाया तब।

खुद भगवान नहीं समझा पाये,
उस पिता को था भीतर जो अर्जुन के।
फिर क्या ज्ञानी बनता है समाज,
बिना मिले ऐसे दुखों के।

जब अर्जुन हो सकता है विचलित,
क्या बात साधारण मनुष्य की।
देख रुप भगवान का,
और सुन ज्ञान उनके मुख से।
यदि मोह नही मिटा अर्जुन का,
अपने पुत्र अभिमन्यु से,
क्यों बनते हो बड़े ज्ञानी तुम,
जैसे हो बड़े तुम अर्जुन से।
और देते हो ज्ञान हमें,
जैसे हो बड़े तुम कृष्णा से।

नहीं मानता वासल देवेन्द्र,
कि अर्जुन समझ पाया गीता को।
यदि समझा होता उसने,
कृष्ण ( भगवान) के उस भाव को।
नहीं करता प्रकट इच्छा मरने की,
यां जयद्रथ को मारने की।
नहीं मानता वासल देवेन्द्र,
कि अर्जुन समझ पाया गीता को।
****
Kindly circulate as much as possible.
We need to understand this truth and reality of life.

अधूरी कहानी

अधूरी कहानी . written by वासल देवेन्द्र..D.k.Vasal
अधूरी कहानी

कुदरत को जो करना है,
कुदरत वो करके रहती है।
एक मौज जो नाज़ुक कश्ती को,
तुफ़ान से बचा कर ले आये।
कुदरत ने तमाशा करना हो,
साहिल (किनारा) पे डूबो के रहती है।

हम हंस लें यां रों लें जितना भी,
कुदरत तो बहरी होती है।
लिखा खुद वासल देवेन्द्र ने,
अपनी कविता ख़ामोशी में।
कुदरत निशब्द हो कर भी,
इशारों से बयां करती है।

ख़ुदा नही बताता राज़ अपने,
हम जितना भी हंस लें यां रो लें।
हम कुछ नां करें यां कुछ भी कर लें,
कुदरत तो चलती रहती है।

हां शिकायत यकीनन है उससे,
कहते हैं हम कज़ा (मौत) जिसे।
आना ही था अगर उसको,
तो आती थोड़ा नियम से।
थोड़ी तो रखती हया(शर्म),
आने से पहले किसी घर में।
ले जाती उस बाप को पहले,
आया जो पहले इस जहां में।

मौत भी है कुदरत का हिस्सा,
वहां कहां सुनवाई होती है।
कुदरत ने जो करना हो,
कुदरत वो करके रहती है।

पूछा वासल देवेन्द्र ने,
खुदा कुछ तो राज़ बता अपने।
हकदार हैं हम जानने के,
क्या गलती हमारी थी,
और क्या मजबूरी तेरी थी।

बोला ख़ुदा ओ मेरे अज़ीज़(प्यारे),
नां कोई गलती तेरी थी।
नां मजबूरी मेरी थी,
आंसूओं से स्याही मिट गयी,
रह गई कहानी अधूरी थी।

पूछा मैंने ख़ुदा से,
क्या तू भी रोता है कभी।
भीगी आंखों से बोला ख़ुदा,
जैसे खो के अपना बच्चा।
तूं रोता है अभी,
हर पल खोता हूं मैं बच्चे,
हर पल रहती नम आंख मेरी।

कोई छोड़ आता मां बाप को,
किसे छोड़ जाते मां बाप।
पहले नां रखता था मैं दिल,
और नां रोता था कभी।
तुझ जैसे इन्सानों ने,
रच दी मेरी रचना नयी।
टपकते हुए आंसूओं से मेरे,
फैल गई स्याही मेरी थी।
बस इसीलिए बच्चे की तेरे,
रह गई कहानी अधूरी थी।
****



क्या वक्त भुला देता है ग़म।

क्या वक्त भुला देता है ग़म.. written by..वासल देवेन्द्र
D.k.Vasal.

क्या वक्त भुला देता है गम।

कुछ दिन पहले बोया         ,बीज एक दर्द ने,
अब फैल गई उसकी जड़ें    ,शरीर के हर अंग में।
दर्द दिया हो गैर ने             , तो संभाल लेता है वक्त,
दर्द हो अगर लाडले का      , तो और हवा देता है वक्त।

वक्त भुला देता है गम        ,ये सच नहीं है केवल भ्रम,
ज़हन का चैन भी चाहिए    , सोने के लिए।
बस आंख मूंद लेने से         ,नींद नहीं आती,
पहले आती देख लाडले     ,को हंसी।
अब किसी बात पर            ,नहीं आती,
अब कहां हैं                      ,हम खुद,       
हमें ख़ुदकी                       ,ख़बर नहीं आती

कभी खुद को                    ,कभी जहां को,
कभी ख़ुदा को                   ,दोष देते हैं।
एक दूसरे के                     ,गले लगते हैं,
दर्द  बांटते हैं                    ‌‌  ,और रो लेते हैं।

बांटने से घटता है दर्द        ,ये सच नहीं है केवल भ्रम,
रोते हुए गले लगते हैं        ,और दर्द बढ़ा देते हैं।
आज तक सुना था           ,वासल देवेन्द्र ने,
दीये से दीया             ‌ ‌      ,जल उठता है।
आज वक्त ने                   ,सिखा दिया,
दर्द बांटने से                   ,और बढ़ता है।

कुछ ज़ख्म ऐसे हैं           ,जो हमेंशा हरे रहते हैं,
कुछ झरने ऐसे हैं            ,जो आंखों से बहते रहते हैं।
पत्ते बिछड़ कर पेड़ से     ,कहां हरे रहते हैं,
हम समझते हैं बाद         ,पतझड़ के ,नये पत्ते आते हैं।
पेड़ के दर्द को                ,नहीं समझते,
जिसके बच्चे                  ,बिखर जाते हैं।

औलाद नां हो                ,तो एक दुःख,
नालायक हो          ‌        ,तो सौ दुख,
हो अच्छी और नां रहे     ,तो बस दुख ही दुख।

मूर्ख नहीं है हम            ,जो हम समझते नहीं,
होना है हम बूढ़ों को      ,फिर से जवान अभी।
और  नन्हे अभागे         ,फरिश्तों को
होना है वक्त से            ,पहले बड़ा!
हैं वो इतने             ‌     ,मासूम अभी,
वो जानते भी नहीं        ,नही मिलेगा उन्हें
बाप का                      ,साया कभी।

बहुत आसान है कहना  ,संभालों ख़ुद को,
वो पूछते हैं पता            बाप का,
क्या जवाब दूं               ,मैं उनको।
रुको थोड़ा मेरे              ,लाडले के बच्चो,
ये बूढ़ा जवान               ,हो रहा है अभी।
दो शब्द हरि                 ,इच्छा,
नही काफी                   ,बूढ़े मां-बाप के लिए
वर्ना क्यों मरते              राजा दशरथ
प्रभु राम के लिए।

या खुदा रहम कर         ,मुझे जीना है अभी,
उम्मीद भरी निगाहों से   ,मुझे देखते हैं सभी।
*****





ख़ुदा की करेंसी

WRITTEN BY …वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
         ( ख़ुदा की करेंसी)
आंसू जो आंख से टपका     , वो पानी नही है,
है हकीकत हमारे दर्द की     , कोई कहानी नही है।
आते नहीं आंसू                  , बेवज़ह कभी,
कोई तो है वज़ह                ,जो आंख नम पड़ी।

पूछा किसी ने हमसे           ,क्या गुज़री है घड़ी,
रफ़्तार आंसुओं की           ,तब और थी बढ़ी।
लगता था  ऐसे जैसे          , बरसात की झड़ी,।

लगा कर अपने सीने से      ,कहा मैंने उसकी मां से
रोको इन आंसुओं को        ,हैं कीमती ये बहुत,
ना गिरायो इन्हें ज़मीन पर   ,जल जाये ना जहां कहीं।

कुछ संभल कर                  ,कुछ रुक कर,
उनकी जुबां खुली               , बोली वो सिसकियों में।
मैं कुछ नां कर सकी            , यूं पलक झपकते ही,        
गया बेटा……                     , ख़ुदा के जहां में।

ना पूछो हमसे हमारे          ,दर्द की हकीकत,
रो दोगे तुम यकीनन          ,जान के असलियत।
निभाया साथ उसने          ,पूरी जवानी में,
अब आया अजीब मोड़     , हमारी जिंदगानी में।

चला गया हमें छोड़ कर     , रोते हैं हम सभी,
लगता है निकल जायेगा    ,दम अभी के अभी।
मालूम नही हमको           ,क्या था कसूर हमारा,
थी अटूट मौहब्बत            ,यां मोह का अंधेरा।

कहे उसकी मां को             ,प्यार से ये बोल,
मत करो खर्च आंसू          ,इस नशवर जहां में तुम।
रखो बचा के इनको          ,हैं  ये बहुत अनमोल,
आयेंगे काम तुम्हारे           ,जब मिलोगी खुदा से तुम।

किसी धन दौलत             ,यां शोहरत की,
नहीं अहमियत                ,वहां।        
शाय़द ये                        ,अनमोल मोती,
कर दें कुछ                     ,कमाल वहां।

चलती है वही करेंसी        ,उसके जहां में,
बहती है बनके आंसू        ,जो करुणा के भाव में।
हैं पारर्दशक जो              ,पानी की तरहां,
होती है स्वाद जो            ,सागर की  तरहां।

इतिहास है गवाह            ,इसकी काबिलियत का,
हो कृष्ण का दौड़ना         ,द्रोपदी के लिए।
यां  आंसू देवकी के         ,गुज़रे बच्चों के लिए,
यां नानकी के आंसू         ,भाई नानक के लिए।

कहां समझ पाते हैं हम     ,इस जहां में,
हर आंसू भिगोता है         ,दामन खुदा का।             
उस जहां में।

रोते हुए समझाया           ,पिता वासल देवेन्द्र ने,
अधमरी, बिलखती         ,तड़पती हुई मां को।
नां बहायो तुम आंसू        ,अब गिरीश के लिए,
ये पेशकीमती तोफा        ,रखो खुदा के लिए।
बदल दी जिसने             ,तकदीर हमारी
बस एक                       ,घाव में,
देना उसको बदले में       ,दिये दर्द के लिए।

चलती है वही करेंसी       ,ख़ुदा के जहां में
बहती है बन के आंसू      ,जो करुणा के भाव में

******

अक्षर ढाई…2.. दर्द.. Written by वासल देवेन्द्र..D. K.Vasal

अक्षर ढाई—2– दर्द।
हर तरहां के लिखे “अक्षर ढाई” ,
वासल देवेन्द्र ने कविता “अक्षर ढाई “में।
बस “दर्द” ही लिखना भूल गया,
हो नाराज़ वो मुझको डस गया।

है पुत्र भी ढाई अक्षर का,
और पितृ भी ढाई अक्षर का।
कब पुत्र बन गया पितृ मेरा,
मुझे ज़रा पता नही चला।

है गंगा भी ढाई अक्षर की,
और पिंड भी ढाई अक्षर का।
है ज्वाला भी ढाई अक्षर की,
और स्वाहा भी ढाई अक्षर का।

क्या होता है ज्वाला में स्वाहा,
मुझे कभी पता नहीं चला।
होते हैं पाप स्वाहा अपने,
यां होता है मोह स्वाहा अपना।
हो जाता है सब स्वाहा,
जैसे भस्म हो ढाई अक्षर का।

पुत्र छोड़ गया पुत्र अपना,
है पुत्र भी ढाई अक्षर का।
और छोड़ गया कन्या अपनी,
है कन्या भी ढाई अक्षर की।
रोती छोड़ गया पत्नी अपनी,
है पत्नी भी ढाई अक्षर की।

तोड़ गया रिश्ता अपना,
है रिश्ता भी ढाई अक्षर का।
हो गया पूरा जन्म का नष्ट,
है जन्म भी ढाई अक्षर का,
और नष्ट भी ढाई अक्षर का।

मृत्यु तुल्य मिला है कष्ट,
है मृत्यु भी ढाई अक्षर की।
है तुल्य भी ढाई अक्षर का,
और कष्ट भी ढाई अक्षर का।

अश्रु बहते जैसे वर्षा,
हैं अश्रु भी ढाई अक्षर के।
और वर्षा भी ढाई अक्षर की,
था मातृ भक्त बेटा मेरा,
है मातृ भी ढाई अक्षर की,
और भक्त भी ढाई अक्षर का।

है आंख भी ढाई अक्षर की,
और आंसू भी ढाई अक्षर का।
है ज़ख्म भी ढाई अक्षर का
और दर्द भी ढाई अक्षर का।

दर्द हर पहलू से होता है दर्द ,
पढ़ो आगे से यां पीछे से होता है दर्द।
दे दोस्त, दुश्मन यां खुदा,
दर्द हर हाल में होता है दर्द।

इससे अच्छा कोई दोस्त नही,
बेवफ़ाई का इसमें दोष नही।
खुद ही बन जाता है दवा अपनी,
किसी मलहम की इसको तलाश नही।

किसी खंजर से इसको भय नहीं,
सब दोस्त हैं इसके कोई दुश्मन नहीं।
मिलता है सबको कभी नां कभी,
बच सकता इससे कोई नहीं।

आने का इसके कोई वक्त नही,
जाने का इसके कोई वक्त नही।
है गहरा रिश्ता आंखों से,
आंसू रुकने देता नही।

हर तरहां के लिखे ढाई अक्षर,
वासल देवेन्द्र ने कविता ढाई अक्षर में।
बस दर्द ही लिखना भूल गया,
हो नाराज़ मुझे वो डस गया।

तूं दर्द है मेरे लाडले का,
रखूंगा दिल के पास तुझे।
तूं उम्मीद लेकर आया है।
पालूंगा प्यार से मैं तुझे,
तूं भी रखेगा याद मुझे,
कैसा मिला है कृष्ण भक्त तुझे।
***





कृष्ण भक्त और दर्द


कृष्ण भक्त और दर्द.. Written by..वासल देवेन्द्र..
D. K. Vasal
कृष्ण भक्त और दर्द।

भक्ति करने वाले समझ लें,
भक्ति सागर के किनारे नही।
रहें डूबने को हर पल तैयार,
इस राह में कोई सहारे नही।

ये राह है कांटों से भरी,
नही रहती यहां कोई घास हरी।
उम्मीदें रह जाती हैं धरी,
हर घड़ी होती है दर्द भरी।

मिलता है इतना दर्द इसमें,
भूल जाता हैं पाने वाला,
वो दर्द में हैं यां दर्द उसमें।

नही कर्म में रखा ईश्वर अपना,
रखा उसको क्रिया में अपनी।
हर सांस में रहता है मेरी,
जैसे ख़ून चले नस में मेरी।

ये हकीकत है मेरे जीवन की,
नां हैं अतिशयोक्ति किसी पल की।
है ईश्वर ही गवाह मेरा,
रहा हर पल उसके नाम मेरा।

खाना जाए , जल जाए यां कुछ भी जाए भीतर मेरे,
सब होता सदैव अर्पित उसको।
नां सांस आये , नां हवा जाए बिना कृष्ण नाम  भीतर मेरे,
कृष्ण साथी मेरी नींद का और मेरे हर भोज का
दौडूं भागूं कुछ भी करुं कृष्ण साथी मेरी मौज का।

तड़पाता है तूं अपनों को,
ये देख लिया मैंने अब तो।
तड़पाया अपने मां बाप को,
क्या बख्शेगा तूं भक्तों को।

मीरा रोई, कुन्ती रोई,
रोये सुदामा , सूरदास प्रभु।
सीता रोई, कौशल्या रोई ,
रोये दशरथ पिता प्रभु।

अर्जुन रोया, अभिमन्यु खोया,
रोये पांडव, खो पुत्र पांच प्रभु।
राधा रोई , देवकी रोई , रोये पिता वासुदेव प्रभु।
रोये ग्वाल, रोया गोकुल, रोया वृन्दावन प्रभु।
क्या फर्क पड़ता है तुझको,
जो रोये  वासल देवेन्द्र  परिवार प्रभु।

छोड़ूंगा मैं भक्ति नही,
चाहे तू ले ले जान मेरी।
कृष्ण भक्त होते हैं जिद्दी,
शायद तुझे भी पता नहीं।
*****




खुदा का खंजर

खुदा का खंजर।

ख़ुदा का खंजर…. WRITTEN BY ..वासल देवेन्द्र
खुदा का खंजर,
गलती से चल गया उसका खंजर,
रो रहा है ख़ुदा आसमान में बहुत,
देख कर भक्त के घर का मंजर।

खड़ा है दरवाजे पर हो कर शर्मसार,
सुन रहा है चीखें और भक्तों की पुकार।
हिम्मत नही जुटा पाता आने की घर के अन्दर,
वो जानता है सब कुछ जो है इस घर के अन्दर।
बहुत खूबसूरत बनाया है मेरा मंदिर।

हर प्राणी इस घर का रखता है मुझे दिल में,
पहला शब्द पुकारा ” कृष्णा” नन्हे आर्यन ने।
रोती है अनन्या कर याद पिता को अपने,
सोचता है हर पल खुदा अपने मन में।

क्या मुंह दिखाऊं मैं बिलखती पत्नी वन्दना को,
चीर देगी दामन मेरा घायल बहुत है  मां तो।
बच गया बूढ़ा बाप मिलता हूं जा कर उसको
छोड़ दिया जिसे मैंने कर के अर्ध मरा तो।

हर सांस में जो रखता याद हमेशा मुझको
5 साल की उम्र से रटता जो मेरे नाम को
दिन रात बजाता बांसुरी कर कर के याद मुझको
क्या कहेगा वासल देवेन्द्र मैं सोचता हूं अब तो।

भक्त भी हो जाते है शिकार ये मैं जानता हूं,
चल गया खंजर गलती से ये मैं मानता हूं।
हैं वो पक्के ढीठ भक्त  समझते मुझको पावन,
हर सांस में पकड़े रखेंगे वो हर पल मेरा दामन।
******

श्मशान वैराग्य… Written by वासल देवेन्द्र…D.K.Vasal


कभी ना कभी होता सब का,
थोड़ा बहुत मन वैराग्य।
कभी कभी शमशान जो जाओ,
होता है शमशान वैराग्य।

मन सब का होता उश्चाट,
थोड़ा बहुत शमशान में जा के।
गुलमिल जाते वापस आकर,
फिर अपने संसार में आके।

हां गुलना मिलना भी है जरूरी,
हैं जब तक बची हमारी सांसें।
पर मत भूलो महसूस करना,
लगा था जो शमशान में जा के।

भागो चाहे  छिप जाओ जितना,
मत भूलो है रूह की आदत।
जैसे तैसे करके भी,
है पाना उसको बस वैराग्य।

है सुख दुख का कारण ये रुह,
जो रहती बंधी हर दम इस देह में।
प्रकृति है उसकी आज़ाद,
दम घुटता उसका इस देह में।
जैसे तैसे करके भी,
है पाना उसको वैराग्य।

आदत डालो धीरे धीरे,
पहले समझो तुम वैराग्य।
करो मोह को भी तुम थोड़ा।
लालच भी छोड़ो धीरे धीरे।

वैराग्य नहीं रहना जंगल में,
यां छोड़ना ये संसार।
रहते हुए भीड़ में भी,
कर लो मन अपना एकांत।

विज्ञान कहता है सोचता मन,
एक पल में बस एक विचार।
है वासल देवेन्द्र बस दोहराता,
चलो सोचें हर पल हरि नाम,
हो जायेगा मन एकांत।

हरि के नाम में लगा मनुष्य,
भीड़ में भी रहता एकांत।
होकर कर वो संसार में भी,
होता है वैरागी ही।
*****





GREY FAITH

Written by वासल देवेन्द्र….D.K.Vasal
GREY FAITH

PRAYER TO THE LORD,
WITH SUBTLE AND DOUBTED WILL,
WITH INCENSE STICK IN HAND,
AS IF A PIOUS FRILL,
BELIEVE YOU ME OR NOT,
IS NOTHING BUT A DRILL.

UNSHAKEN FAITH IN LORD,
IS NOT A SIMPLE THOUGHT,
IN FAITH NO ONE WAILS,
AND STANDS LIKE A ROCK,
THAT KIND OF FAITH,
DARES TO MOVE’ MOUNTAINS.

FAITH MOVES MOUNTAINS,
NARRATED FROM STONE AGE,
BUT OUR FAITH IS SUCH,
THAT LIMPS AT EVERY STAGE.

WE MOVE ONE STEP FORWARD,
AND TAKE TWO STEPS BACK,
THAT MAKES IT CRYSTAL CLEAR,
HOW IN FAITH ALL WE LACK,
LIKE NEEDLE OF THE CLOCK,
THAT PROGRESSES TO TWELVE,
AND COMES TO ONE BACK.

OUR FAITH IS LIKE AN ICE-CREAM,
THAT SURVIVES IN COLD BELTS,
WITH LITTLE AMOUNT OF HEAT,
IT’S WHOLE STRUCTURE MELTS.

FAITH IS NOT THAT SHAKES,
MILLIONS CLAIMING FAITH,
OSCILLATE IN WEAK MESH,
THOSE WITH UNSHAKEN FAITH
ARE MADE OF DIFFERENT FLESH.

EASY SAID THAN DONE,
IS STORY OF OUR FAITH,
VASAL DEVENDER WONDERS,
IF WE UNDERSTAND,
THE REAL ELEMENT OF FAITH.

A SHALLOW DEPTH OF PRAYER,
AND GREY TINGE OF FAITH,
I WONDER ONCE AGAIN
IF THAT CAN MOVE MOUNTAINS.

MAY BE MY PRAYER FOR NOW,
NOT TOUCHING LORD’S HEART,
BUT I FEEL BLESSED,
IF IT REACHES HIS EARS.

HE CAN NOT TURN ME AWAY,
FOR QUALITY OF MY PRAYER,
FROM HEART I ALWAYS BOW,
WITH EVERY WORD I UTTER.

A SON CAN BE AN IDIOT,
BUT FATHER IS FULL OF GRACE,
I PRAY, SHOUT AND CRY,
MY LORD FOR YOUR GRACE.
*****

मारेंगे सुई चुभा चुभा के

WRITTEN BY D K VASAL.. वासल देवेन्द्र।
मारेंगे सुई चुभा चुभा के

ये दुनिया अजीब सराये ( INN )
फानी ( which has certain end) देखी,
हर चीज़ यहां की
आनी जानी देखी,
जो जा कर नां आये
वो जवानी देखी दे
जो आ कर नां जाये
वो बुढ़ापा देखा।
पर ये अजीब दौर अब देखा
जिसमें हर पल ने हमको
और हमने हर पल को
शक की निगाह से देखा।
वो कब किस का बन जाये मेहमान
कोई नही जानता
ये पहला है मेहमान
जिसे कोई नही चाहता
है ये बहुत बेशर्म
शर्म नही करता
बच्चा हो यां बूढ़ा
फर्क नही करता
ले लेता हैं सबको अपनी चपेट में
रहम नही करता।
है पूरी दुनिया से इसको बैर
नां इसका कोई अपना नां कोई गैर
है अधर्मी ये बड़ा
कोई धर्म नही मानता
है नियम इसके अपने
कोई नियम नही मानता
है नही ये जवानी की तरह
जो जाकर नही आता
यां बुढ़ापे की तरह
जो आकर नही जाता
हां ये आज है एक पहेली
पर उलझ गया गलत जगह
ये इन्सान को नहीं जानता
इन्सान है नाम उस “श” का
जो कभी हार नही मानता
हर किसी को वो
तलवार से नही मारता
तुझ जैसे नीच को
तो सुई चुभा चुभा के मारता
वासल देवेन्द्र ने छीन ली तेरी पहचान
कहा तुझे एक पहेली
नही दिया तुझको कोई नाम
ओ बेशर्म अपनी औकात
और इन्सान की ताकत को पहचान
अब भाग जा तूं बचा कर
अपनी जान।
*****

बोली की होली

बोली की होली।
WRITTEN BY D.K.VASAL..वासल देवेन्द्र।
बोली की होली

आओ खेलें हम सब होली,
इस बार खेलें, बोली की होली।
होली है रंगों की टोली,
हों जहां रंग होती वहां होली।
चलो खेलें बोली की होली,
थोड़ा हटकर खेलें इस बार की होली।

हम ध्यान नहीं करते पर दिन भर,
हम हर दम खेलते रहते होली।
गुस्से में चेहरा हो लाल पीला,
मुस्कुराने से होता मौसम रंगीला।
शरमाओ तो हों गाल गुलाबी,
बदल देती है चेहरे के रंग,
हम सब की ये अपनी बोली।

बोलें अगर हम मीठी बोली,
छोड़ेगी वो रंग सतरंगी।
हर पल होगी हमारी होली,
कुदरत के रंगों की होली,
खेली जो गालों ने होली।

नही होता रंग सफेद होली में,
हो चेहरा सफेद बस घबराहट में।
नां बोलो तुम कभी ऐसी बोली,
जो करे सफेद चेहरे की होली।

खेलो मीठे वचनों की होली,
रंग दो सब का तन मन ऐसे।
कुदरत ने बांटे रंग जैसे,
जैसे हो फूलों की क्यारी।

शब्दों की चाशनी से भरे गुब्बारे,
आज नां छोड़ो किसी को भी तुम।
बिना गिनें मारो गुब्बारे,
मारने वाला नां शरमाये,
खाने वाला मस्त हो जाये।

रसना (ज़ुबान /जीवा ) अपनी को मीठी बनायो,
मीठी वाणी की पिचकारी चलाओ।
रंग बिरंगे रंग बरसाओ,
मीठे शब्दों के बान चलायो,
खुद खाओ औरों को खिलायो।

आओ मिलजुल खेलें होली,
हट कर थोड़ा खेलें होली,
आज खेलें बोली की होली।

है वासल देवेन्द्र का कहना,
होली तो है एक बहाना।
है हमको रूठों को मनाना,
कौन रूठता है गैरों से?
तुम रूठे जो हमें अपना माना।

चलो रखें हम मान होली का,
तुम अब कर दो माफ़ मुझको।
मैं भी भूल जाऊं हर शिकवा,
इस बार खेलें ये मौखिक होली।
रंगों में भीगे शब्दों की होली,
आओ खेलें बोली की होली।
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हमारी प्यारी अनन्या।

WRITTEN BY D.K.VASAL…वासल देवेन्द्र।
My granddaughter ANANYA’S birthday today.
हमारी प्यारी अनन्या।

अनन्या नहीं कोई आम कन्या,
है अदभुत बहुत हमारी अनन्या।
अनन्या का मतलब है अनंत,
है सचमुच में अनन्त अनन्या ‌।

पड़ने लिखने में श्रेष्ठ अनन्या,
खेल कूद में तेज अनन्या।
चित्रकारी में निपुण अनन्या,
जो हम सब की है प्यारी अनन्या।

मम्मी पापा की परी अनन्या,
आर्यन की प्यारी दीदी अनन्या।
दादी की सहेली अनन्या,
और दादु का है घमंड अनन्या।

घर हमारे की जान अनन्या,
सयानी बड़ी हमारी अनन्या।
रुठ जाती है जब अनन्या,
मनाता हर कोई कह मेरी अनन्या।

छुप जाये कर शरारत जो,
हर कोई ढूंढे है कहां अनन्या।
कोने में वो बैठी छुप कर,
मिले पड़ती ” हैरी पॉटर” अनन्या।

आज हो गई ‌गयारह बरस की अनन्या,
जैसे जादू से बड़ गई अनन्या।
कल तक थी जो खेलती गोद में,
अब भाई को गोद उठाये अनन्या।

तुम सुनो मज़े की बात अनन्या,
बतलाता है दादु वासल देवेन्द्र।
अब हर कोई करता घर में दावा,
बस उसने दिया तुम्हें नाम अनन्या।

अब तुम समझी प्यारी अनन्या,
क्या होता है होना अनन्या।
लाखों और हजारों जन्में,
फिर जन्मी हमारी जान अनन्या।

मम्मी पापा की प्यारी अनन्या,
भाई आर्यन की दुलारी अनन्या।
दादी दादू का है ये कहना,
हर सांस में देंगे तुझे दुआएं,
है जब तक सांस में सांस अनन्या।

दादी दादु हैं उनके आभारी,
दी जिन्होंने हमें प्यारी अनन्या।
है हर पल दुआ हम दोनों की,
खुश रहें तेरे मम्मी पापा अनन्या।

अब ध्यान से सुन तूं प्यारी अनन्या,
ये दादी दादु की शिक्षा अनन्या।
तूं रहना हरि के नाम अनन्या,
नही उससे बड़ा कोई मित्र अनन्या।
बिना हरि नही कोई अनन्या।
है लाखों में एक हमारी अनन्या,
नही कन्या कोई जैसी अनन्या।
****

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कन्या की दुश्मन कन्या ।

Written by D.K.Vasal…..वासल देवेन्द्र।

कन्या की दुश्मन कन्या,
है वो घर धन्या ,जहां होती कन्या,
द्रोपदी से जानों द्रुपद को।
और जनक को जानकी से,
विवेक बड़े अहंकार घटे,
हो जिस घर में भी कन्या।

कन्या ने जनमा मर्द को,
और मर्द भी हो गया धन्य।
मां मिल गई जैसे ईश्वर,
है मां भी उसकी कन्या।

हैं सृष्टि के कुछ रंग,
जो अधूरे बिना कन्या।
ममता, मोह और प्यार का,
है दूसरा नाम कन्या।

मनुष्य हो यां कोई प्राणी,
हो जीव जंतु यां अन्य।
नही होंगी पैदा संतानें,
अगर ना रही कोई कन्या।

हां एक अचंभा है जहां में,
सोचूं जो ध्यान लगा के।
हर औरत को चाहिए बालक,
ना मांगे कन्या दुआ में।

हां समाज की है कुछ गलती,
मानता है वासल देवेन्द्र।
पर विचार कर के जो सोचो,
कन्या की दुश्मन कन्या।

कहां से लाओगे बहू,
ना होगी अगर कोई कन्या।
पर अपनी बहू ना जन्मे,
कभी भी कोई कन्या।

मां अपनी चाहिए सब को,
पर नही चाहिए कोई कन्या।
चेहरे पे आती लकीरें,
जन्में जो घर में कन्या।

है लिखा मार्कन्डेय पुराण में,
है प्रकृति भी एक कन्या।
अहंकार में भूल जाते,
भगवान की मां भी कन्या।

सहती जो सबसे ज़्यादा,
वो पृथ्वी भी है कन्या।
विवेक बड़े अहंकार घटे,
हो जिस घर में भी कन्या।
है वो घर धन्या जहां होती कन्या।
****”
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WOMENS’ DAY, Men are mean I would say,

WOMEN S’ DAY ( DEDICATED TO ALL WOMEN)

WOMENS’ DAY (DEDICATED TO ALL WOMEN) Written by D.k.Vasal..
वासल देवेन्द्र।
Men are mean I would say,
They celebrate a WOMENS’ DAY.
Where is a day ? when woman is away,
Every day is a WOMENS’ DAY.

A man may live a long long life,
He is zero without mother or wife.
He will remain an immature boy,
You are immature, if you ask why?

A man gets life,
Because of his mother.
His house becomes home,
Because of his wife.

You may agree or like to disagree,
Woman is a light in man’s dark life.
With Womens’ prayers men touch heights,
No one loves you as mother and wife.

Tell me ‘O’ man tell me please,
With whom can you have so many fights.
Ready are they to die for us,
Unless we eat they don’t take a bite.

Do you know why?
Woman is called a Woman.
I will tell you the secret behind this,
W IS WHO, O IS OWN.
WOMAN IS ONE WHO OWNS MAN,
IT SOUNDS LOGICAL, when I define.
AS there COULD BE NO MAN
WITHOUT A WOMAN.

Was not Vasal Devender right?
Calling men mean,
Celebrating WOMENS’ day after a year.
As if dear woman,
Is not that dear.( Precious)
****

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अगर पलकें मेरी कम पड़ी

Written by D. K. Vasal …वासल देवेन्द्र।
अगर पलकें मेरी कम पड़ी,

अजीब होते हैं ,दिल के रिश्ते भी,
कभी बच जाते हैं ,कांटों पर।
कभी छिल जाते हैं ,मखमल पर
जुड़ जाते हैं पल में ,और बिखर जाते भी।

रहते हैं जिंदा ,मुलायम शब्दों पर,
सजाना पड़ता है , नाज़ुक पलकों पर।
मर जाते हैं जो ,फिसले ज़ुबान भी,
नही होते फिर जिंदा ,देने पर जान भी।

सब को खुश रखना ,मुझे नहीं आता,
जलाता हूं चिराग तो , है अंधेरा रुठ जाता।
सूरज को चाहूं तो ,है चांद रुठ जाता,
खुद को जो चाहूं तो है जहां रुठ जाता।

हूं अकेली मैं जान ,रिश्तों के दरम्यान,
किसको भूल जाऊं ,और किसका रखूं मान।
है हर कोई समझता ,है उसकी बड़ी शान,
मुझ गरीब का ,किसी को नहीं है ध्यान।

एक को मनाऊं तो ,है दूसरा रुठ जाता,
कभी कोई रुठ जाता ,कभी कोई रुठ जाता।
सब को खुश रखना ,मुझे नहीं आता,
सच कहूं मुझे रुठों को ,मनाना नहीं आता।

बात है दिल की और ,दिल के रिश्तों की,
बस देख कर ये ,अदा उनकी।
है सोचता वासल देवेन्द्र ,अभी,
सजा लूंगा हर रिश्ता ,दिल में मैं।
अगर पलकें मेरी ,कम पड़ी,
अजीब होते हैं ,दिल के रिश्ते भी,
जुड़ जाते हैं पल में ,और बिखर जाते भी।

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धीरे धीरे

Written by D.K.Vasal….वासल देवेन्द्र
धीरे धीरे
है सृष्टि का संदेश चलो तुम धीरे धीरे,
चलती है धरती भी धीरे धीरे।
ढलता है सूरज भी धीरे धीरे,
टिमटिमाते हैं तारे भी धीरे धीरे।
होती है भोर भी धीरे धीरे।

धड़कता है दिल भी धीरे धीरे,
चलती हैं सांसें भी धीरे धीरे।
फिसलता है बचपन भी धीरे धीरे,
ढलती है जवानी भी धीरे धीरे,
घटती है उम्र भी धीरे धीरे।

प्यार भी होता है धीरे धीरे,
बहलता है मन भी धीरे-धीरे।
पलकें भी झपकती हैं धीरे धीरे,
बालक सोता है धीरे धीरे,
मां सुनाती है लोरी भी धीरे धीरे।

बदलती हैं ऋतुयें भी धीरे धीरे,
खिलते हैं पुष्प भी धीरे धीरे।
महकते हैं गुलशन भी धीरे धीरे,
पकते हैं फल भी धीरे-धीरे।
पचता है भोजन भी धीरे धीरे

चलता है वक्त भी धीरे धीरे,
आती है समझ भी धीरे धीरे।
कहता है वासल देवेन्द्र ये धीरे धीरे,
जप ले हरि नाम तूं धीरे धीरे।
वो सुनता है पुकार को धीरे धीरे,
मिलता है मोक्ष भी धीरे धीरे,
है सृष्टि का संदेश चलो तुम धीरे धीरे।

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CARING SONS

Written by D K Vasal…वासल देवेन्द्र
DEDICATED TO CARING SONS.

Each case has two certain sides,
One is wrong and other is right,
People are good and people are bad
This is true in every walk of life.

Some give balm and some give pain,
Talk is more for crazy Dons,
Let us talk more about worthy sons .
We are responsible for not paying heed,
Bad becomes popular ,good gets eclipsed.

A lot of noise about senior citizen homes,
Bad sons are cursed in every single home,
Why remember always some bad scars,
Don’t close your eyes, to sons who are stars.
Vasal Devender appeals to each & all,
Shower our blessings to all those
SHARAVAN KUMARS.
Just forget all who are bad scars,
Glorify sons who are super stars.

History has given us one Sharavan Kumar,
These bright sons are,
eternal Sharavan kumars.
Forget and forgive all bad scars,
Glorify, Glorify, all noble stars.
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हिंसा

हिंसा
Written by D. k. Vasal- वासल देवेन्द्र
हिंसा
हैं हिंसा करने के ,कई ढंग,
हिंसा नही ,बस तोड़ना अंग।
है हिंसा करना ,शान्ति भी भंग,

इच्छा ना हो ,पूरी जब,
हिंसा करता ,हर कोई तब।
रोना चिल्लाना ,मचाना शोर,
पाने को वस्तु ,यां प्यार,
ये सब हिंसा के ,हथियार।

शब्दों की है ,हिंसा गहरी,
क्या हिंसा ,करे तलवार।
बिना अंकुश के ,बोले शब्द,
छीन लेते हैं ,प्यारे यार।

अंग टूटे नही ,होता उतना,
मन टूटे होता ,जो दर्द।
ना जाने फिर ,शब्द कोश क्यों,
नही कहता इसे ,हिंसा का शब्द।

सब की है ,परिभाषा अपनी,
वासल देवेन्द्र की ,भाषा अपनी।
हैं समाज के ,सुन्दर रंग,
है रहना जो ,सब के संग,
रहो बन के ,एक दूजे का अंग,
और ना करो , तुम शांति भंग।
जब समझोगे ,हिंसा के ढ़ंग,
रंग जाओगे ,अहिंसा के रंग।
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मैं और मेरी “मैं”

Written by D.K. Vasal..वासल देवेन्द्र।
मैं और मेरी “मैं”
तुम तराशोगे ,अगर मुझमें,
हैं तराशते ,हीरा जैसे।
आयेंगी नज़र ,तुम्हें खूबी ही मुझमें,
तुम तलाशोगे ,अगर मुझमें,
हैं तलाशते ,ख़ामी जैसे,
आयेगी नज़र ,तुम्हें कमी ही मुझमें।

मैं क्या हूं ,कुछ भी नहींं,
तुम तराशो मुझे ,यां तलाशो मुझे।
हूं मैं कुछ ,भी नहीं,
बस नज़रिया ,तुम्हारी नज़र का।

ना अच्छी है ,मेरी “मैं”
ना अच्छी ,तुम्हारी “मैं”
है अंत करीब ,उसका,
जिसने भी ,करी है “मैं”

करती मैं मैं ,दिन-रात बकरियां,
हैं कटती ,दिन-रात बकरियां।
कभी सोचा ,कैसे मरता मेंढ़क,
करता टैं टैं ,बताने को हूं “मैं”।
सुन आवाज़ ,आता है सांप,
निगल जाता ,मेंढ़क की “मैं”।

मैं कुछ नही ,तो खुदा हूं मैं,
मैं जिंदा भी ,रहूंगा मरा,
हैं जब तक ,मुझमें मेरी “मैं”।

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प्रारब्ध यां दो हाथ।

प्रारब्ध यां दो हाथ

Written by D.K.Vasal-वासल देवेन्द्र

प्रारब्ध यां दो हाथ
वक्त ने दिया जो साथ हमेशां,
ना आयेगा कोई तज़ुर्बा हाथ।
ज़रुरत पड़ी अचानक जब,
रह जाओगे मलते हाथ।

हैं लकीरें किस्मत की सबके हाथ,
है संवारना उनको अपने हाथ।
है मेहनत करना अपने हाथ,
नां रहो बैठे रख हाथ पर हाथ।

छोड़ा अगर किस्मत ने साथ,
तज़ुर्बा तुम्हारा देगा साथ।
हैं किस्मत के भी पहलू दो,
एक वक्त हमारा – एक हाथ ये दो।

है किस्मत हमेशां एक पहेली,
पर हैं काबू में हाथ ये दो।
हैं बदल सकते ये वक्त तुम्हारा,
तुम किस्मत अपने हाथों में दो।

है छीन सकता वक्त तुमसे,
जो मिला किस्मत के साथ
कर्म खड़ा है सामने उसके,
करने को फिर दो दो हाथ।

सिखाता है हमें कर्म हमेशां,
है किस्मत हमारी अपने हाथ।
कहता है वासल देवेन्द्र ये बात,
ना रहो बैठे रख हाथ पर हाथ।

सूरज करता मेहनत दिन रात,
देने को हमें दिन और रात।
रोज़ होती चंदा की मुंह दिखाई,
हों दोनों जैसे सृष्टि के हाथ।

नही रुकती धरती मां हमारी,
हैं चलती रहती दिन और रात।
देने को सूरज चंदा का साथ,
ले एक दूजे का हाथ में हाथ।

हैं मेहनत करते सब साथ साथ,
रहते ख़ामोश नही करते बात।
सह कर, चल कर, जला कर खुद को,
हैं सिखाते हमको ये बात,

तुम बना सकते हो प्रारब्ध अपनी,
ना रहो बैठे रख हाथ पर हाथ।
तजुर्बा भी आयेगा हाथ,
तुम करो वक्त से दो दो हाथ।
******
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