Written by D. K. Vasal – वासल देवेन्द्र
( नमक )
मेरे होने की, ,कोई सराहना नही करता,
मेरा ना होना ,कोई बर्दाश्त नही करता।
मेरा ज़रा भी ,ज़्यादा होना,
बहुत अखरता है।
मेरा ना होना ,कोई सहन नही करता,
शायद मैं ,भूल रहा हूं,
सिर्फ रंग सफेद ,होने से
कुछ नही ,होता है।
मैं नमक हूं, ,मिठास नही,
नही तो ,क्यों।
सब के गुस्से ,का शिकार होता।
हूं ज़रुरी मैं बहुत ,ये सब जानते हैं,
शुभ काम में मुझे ,कोई याद नही करता।
हैं यही विडम्बना ,इस संसार की,
जो देता है सुख ,उसे नहीं पूछता,
और मीठे ज़हर को ,वो रहे ढूंढता।
वक्त कैसा भी हो ,मैं साथ नही छोड़ता,
पियो गम में यां ,खुशी में।
देता हूं ,हमेशां साथ,
नही देखा कभी ,किसी को,
लेते मय ,मीठे के साथ।
हां समझा ,वासल देवेन्द्र,
सिर्फ इंसान का ,ही नही।
हर ‘श’ का ,नसीब होता है।
चिराग जो देता है, ,अंधेरे में साथ,
बुझाने में उसको ,बस सुबह का।
इंतजार होता है।
जो देता है ,हमेशां साथ,
वो ही गुस्से का ,शिकार होता है।
सिर्फ रंग ,सफेद होने से,
कुछ नही होता।
ये तो अपना अपना ,नसीब होता है,
मेरे होने की कोई ,सराहना नही करता,
मेरा ना होना ,कोई बर्दाश्त नही करता।
***
Great thoughts.
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Thank you very much.
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रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हमारी उदासीनता और अवहेलना को लगातार झेलते नमक के माध्यम से यह कविता इस कड़वी सच्चाई को बड़े ही अच्छे अन्दाज़ में हमारे सामने पेश करती है और हमें अपने अंदर झांकने को प्रेरित करती है – “जो देता है हमेशा साथ,
वही ग़ुस्से का शिकार होता है।”
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Thank you
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Another gem, grounded, factual and hard hitting
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Thank you
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Wow.
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Amazing poem.
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Amazing poem.👌
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What a thoughtful. Out of box
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Thank you.
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Very good
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