WRITTEN BY D K VASAL.. वासल देवेन्द्र।
मारेंगे सुई चुभा चुभा के
ये दुनिया अजीब सराये ( INN )
फानी ( which has certain end) देखी,
हर चीज़ यहां की
आनी जानी देखी,
जो जा कर नां आये
वो जवानी देखी दे
जो आ कर नां जाये
वो बुढ़ापा देखा।
पर ये अजीब दौर अब देखा
जिसमें हर पल ने हमको
और हमने हर पल को
शक की निगाह से देखा।
वो कब किस का बन जाये मेहमान
कोई नही जानता
ये पहला है मेहमान
जिसे कोई नही चाहता
है ये बहुत बेशर्म
शर्म नही करता
बच्चा हो यां बूढ़ा
फर्क नही करता
ले लेता हैं सबको अपनी चपेट में
रहम नही करता।
है पूरी दुनिया से इसको बैर
नां इसका कोई अपना नां कोई गैर
है अधर्मी ये बड़ा
कोई धर्म नही मानता
है नियम इसके अपने
कोई नियम नही मानता
है नही ये जवानी की तरह
जो जाकर नही आता
यां बुढ़ापे की तरह
जो आकर नही जाता
हां ये आज है एक पहेली
पर उलझ गया गलत जगह
ये इन्सान को नहीं जानता
इन्सान है नाम उस “श” का
जो कभी हार नही मानता
हर किसी को वो
तलवार से नही मारता
तुझ जैसे नीच को
तो सुई चुभा चुभा के मारता
वासल देवेन्द्र ने छीन ली तेरी पहचान
कहा तुझे एक पहेली
नही दिया तुझको कोई नाम
ओ बेशर्म अपनी औकात
और इन्सान की ताकत को पहचान
अब भाग जा तूं बचा कर
अपनी जान।
*****
Liked this poem for the positive vibes indicating humans will overcome this challenge.
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🙏
ज्वलंत मुद्दे पर रची गई, वासल जी की यह स्वतःस्फुर्त उम्मीदों से भरी समसामयिक रचना अति प्रशंसनीय है!
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