क्या वक्त भुला देता है ग़म.. written by..वासल देवेन्द्र
D.k.Vasal.
क्या वक्त भुला देता है गम।
कुछ दिन पहले बोया ,बीज एक दर्द ने,
अब फैल गई उसकी जड़ें ,शरीर के हर अंग में।
दर्द दिया हो गैर ने , तो संभाल लेता है वक्त,
दर्द हो अगर लाडले का , तो और हवा देता है वक्त।
वक्त भुला देता है गम ,ये सच नहीं है केवल भ्रम,
ज़हन का चैन भी चाहिए , सोने के लिए।
बस आंख मूंद लेने से ,नींद नहीं आती,
पहले आती देख लाडले ,को हंसी।
अब किसी बात पर ,नहीं आती,
अब कहां हैं ,हम खुद,
हमें ख़ुदकी ,ख़बर नहीं आती
कभी खुद को ,कभी जहां को,
कभी ख़ुदा को ,दोष देते हैं।
एक दूसरे के ,गले लगते हैं,
दर्द बांटते हैं ,और रो लेते हैं।
बांटने से घटता है दर्द ,ये सच नहीं है केवल भ्रम,
रोते हुए गले लगते हैं ,और दर्द बढ़ा देते हैं।
आज तक सुना था ,वासल देवेन्द्र ने,
दीये से दीया ,जल उठता है।
आज वक्त ने ,सिखा दिया,
दर्द बांटने से ,और बढ़ता है।
कुछ ज़ख्म ऐसे हैं ,जो हमेंशा हरे रहते हैं,
कुछ झरने ऐसे हैं ,जो आंखों से बहते रहते हैं।
पत्ते बिछड़ कर पेड़ से ,कहां हरे रहते हैं,
हम समझते हैं बाद ,पतझड़ के ,नये पत्ते आते हैं।
पेड़ के दर्द को ,नहीं समझते,
जिसके बच्चे ,बिखर जाते हैं।
औलाद नां हो ,तो एक दुःख,
नालायक हो ,तो सौ दुख,
हो अच्छी और नां रहे ,तो बस दुख ही दुख।
मूर्ख नहीं है हम ,जो हम समझते नहीं,
होना है हम बूढ़ों को ,फिर से जवान अभी।
और नन्हे अभागे ,फरिश्तों को
होना है वक्त से ,पहले बड़ा!
हैं वो इतने ,मासूम अभी,
वो जानते भी नहीं ,नही मिलेगा उन्हें
बाप का ,साया कभी।
बहुत आसान है कहना ,संभालों ख़ुद को,
वो पूछते हैं पता बाप का,
क्या जवाब दूं ,मैं उनको।
रुको थोड़ा मेरे ,लाडले के बच्चो,
ये बूढ़ा जवान ,हो रहा है अभी।
दो शब्द हरि ,इच्छा,
नही काफी ,बूढ़े मां-बाप के लिए
वर्ना क्यों मरते राजा दशरथ
प्रभु राम के लिए।
या खुदा रहम कर ,मुझे जीना है अभी,
उम्मीद भरी निगाहों से ,मुझे देखते हैं सभी।
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I think as poet this is your best creation in bringing out the sad sentiments which are common to civilised world
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