काला टीका… Written by वासल देवेन्द्र..D.K. VASAL.
काला टीका।
कहां माना मैंने कभी,
काले टीके का चलन।
कहां जाना मैंने कभी,
ऩजर उतारने का ऱाज।
नां जाने क्यों दिल करता है,
सब कुछ मानने को आज।
अक्सर सुना है लोगों से कहते,
उतार दो इसकी नज़र।
लगा दो इसे काला टीका,
लग जाये नां इसे किसी की नज़र।
किसकी लगती है नज़र और क्यों?
कौन लगाता है नज़र और क्यों?
कोई नही जानता ज़वाब इसका,
फिर भी हर कोई मानता है क्यों।
ज़रूर खोया होगा,
किसी ने अनमोल रत्न।
करने से पहले शूरु,
नज़र उतारने का चलन।
मजबूर बहुत करता है ये दिल,
मानने को सब कुछ हर दिन।
कभी कभी लगता है,
शायद सहम गया हूं मैं,
यां डर गया है ये दिल।
समझ में नहीं आता,
पल भर में क्या क्या बदल गया।
आसमान नहीं लगता अब अपना,
हवायें भी चुभने लगी हैं अब।
बरसात लगती है जैसे ख़ुदा के आंसू,
रोशनी भी डसने लगी है अब।
उम्मीद जैसे अंधेरों में गुम हो गई,
उम्र जैसे पल भर में गुणा हो गई।
अजीब सा लगने लगा है जहां,
जिंदगी जैसे मेहमान हो गई।
कभी कभी थोड़ा थोड़ा,
सम्भाल लेता हूं खुद को।
बिखर जाता हूं फिर मैं,
देख कर शीशे में ख़ुद को।
दिखता था वो तेरे जैसा,
शीशा जैसे कहता हो मुझको।
जब दिल करता है छूने को उसको,
खुद को प्यार कर लेता हूं।
रोते रोते हंसता हूं,
हंसते हंसते रो लेता हूं।
देख कर वक्त का चलन,
करता है वासल देवेन्द्र का मन।
जानने को नज़र उतारने का राज़,
और मानने को,
काले टीके का चलन।
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