कौन था वो… Written by वासल देवेन्द्र.. D. K. Vasal
कौन था वो।
पूछा मैंने एक ग्वाले से एक दिन,
कैसे पहचानते हो गायें अपनी तुम।
इन सैंकड़ों-हजारों गायों की भीड़ में,
बोला वो ग्वाला तब मुझसे।
जैसे इन लाखों की भीड़ में,
पहचानते अपने बच्चे तुम।
मैंने बोला,
हर चेहरा होता हमारा अलग,
ऐसे पहचानते अपने बच्चे हम।
ग्वाला बोला,
तुम देखो अगर नज़रों से मेरी,
मुझे दिखती अपनी गायें अलग।
सोचा वासल देवेन्द्र ने मैं भी सीख लूं,
इस ग्वाले से ये अजीब हुनर।
कैसे पहचानते हैं अपनों को,
जब दिखते हों वो एक से सब।
कोशिश की मैंने बहुत,
पर सीख नां पाया मैं वो हुनर।
अब ढूंढता रहता हूं आकाश में,
वो सितारा जो बन गया लाल मेरा।
हज़ारों सितारों में कैसे ढूंढूं,
है कौन सितारा लाल मेरा।
सीख लेता अगर हुनर मैं,
उस ग्वाले से पहले ही।
ढूंढ लेता आकाश में,
है कौन सितारा लाल मेरा।
फिर लगता है शायद,
थी वो हरि की इच्छा ही।
जो सीख नां पाया मैं वो हुनर,
अब हर सितारा लगता है मुझको,
जैसे हो वो लाल मेरा।
अलग चमकता है वो आकाश में,
हो जैसे वो ध्रुव तारा।
क्यों नां चमके? क्यों नां चमके?
कौन था वो? कौन था वो?
वो था मेरी आंख का तारा,
था वो मेरी आंख का तारा।
चिन्ता नां कर मेरे बेटे,
चमक रहेगी तेरी तब तक।
है जब तक खड़ा आकाश वहां।
कमजोर पड़ी जो नज़रें मेरी,
नहीं रुकने दूंगा ख़ोज वहां।
सितारों में ही नहीं बस,
मैं ढूंढता हूं तुझे इन्द्रधनुष में।
चेहरा तेरा खिलता था ऐसे,
जैसे रंग हों इन्द्रधनुष में।
लाल पीला हरा सतरंगी,
रहते सब वो रंग थे तुझमें।
दिखता है आकाश में ऐसे,
जैसे मोर मुकुट हो कृष्ण के अंग में।
अच्छा है नहीं सीख पाया मैं,
उस गवाले से वो नया हुनर।
तूं हर सितारे में दिखता है अब,
और मोर मुकुट में हरि के अब।
***
Very touching . Also beautifully worded poem
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Jai Shri Krishna
Very Touching
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