ताश के पत्ते…. Written by वासल देवेन्द्र..
D.K.Vasal.
ताश के पत्ते।
बाटंता है ख़ुदा मुकद्दर ऐसे,
जैसे बंटते हैं ताश के पत्ते।
उठा कर गड्डी मुकद्दर की,
और काट के उसे प्यार से।
बिना करे फिर फर्क कोई,
बांटता जैसे ताश के पत्ते।
कोई नही जान पाता कभी,
क्या मिलेंगे उसको पत्ते।
गुलाम, बादशाह, बेगम,
ईका यां फिर छोटे पत्ते।
रंग बिरंगे मिलेंगे पत्ते,
यां मिलेंगे एक रंग के पत्ते।
अलग नम्बर के मिलेंगे पत्ते,
यां एक नम्बर के होंगे वो पत्ते।
बदल नही सकते हैं हम,
एक बार जो मिल गये हमको पत्ते।
हम ये भी नही जान पाते कभी,
क्या दूसरे खिलाड़ी के होंगे पत्ते।
नही अधिकार हमारा पत्तों पर,
हों दूसरों के यां अपने पत्ते।
नही जीत सकते हम तब तक,
जो कमजोर नहीं दूसरे के पत्ते।
ये पत्ते हैं हमारा भाग्य,
और वक्त है खिलाड़ी दूसरा।
कभी भारी हमारे पत्ते,
कभी भारी वक्त के पत्ते।
थोड़ा थोड़ा कुछ देर तक,
हम नाचें कूदें देख कर पत्ते।
पर जल्दी आ जाता है समझ,
भारी पड़ेंगे वक्त के पत्ते।
बंट गये एक बार जो पत्ते,
खुदा नहीं बदल सकता वो पत्ते।
रो लो चाहे हंस लो जितना,
मिलने थे जो मिल गये पत्ते।
खेल कोई भी हो ताश का,
जरूरी हैं मिलें अच्छे पत्ते।
चतुर हों कितने भी खिलाड़ी,
जीतते हैं बस अच्छे पत्ते।
भरने वाले जेबों को सभी,
खेलते रहते बलाईंड लालच में।
सोच के वो हैं खिलाड़ी अच्छे,
एक ही झटके में जब सब लुट जाता।
कहता है वासल देवेन्द्र,
समझो खोले वक्त ने पत्ते।
समझो खोले वक्त ने पत्ते
खूद़ा बांटता मुकद्दर ऐसे,
जैसे बंटते ताश के पत्ते।
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Beautifully brought out the game of chance that is cards and fate of human being .
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