बस ढूंढता रहता हूं मैं।
महीने हो चुके अब तो दो….. वासल देवेन्द्र… Written by D.K.Vasal
महीने हो चुके अब तो दो,
सोचते होगे तुम सब तो।
सम्भल गया होगा वासल देवेन्द्र,
हो गया होगा चुप रो रो कर वो।
नहीं नहीं नहीं है ये सच,
हर पल रहते आंसू पलकों पर।
बहता रहता है एक झरना,
हवा के झोंके से हिल ही जाते,
याद में उसकी बह ही जाते।
जब तक ज़िंदा हूं रहेगा घाव,
खून रहेगा वहां से रिसता।
नही समझ पायेगा कोई,
क्या था मेरा उससे रिश्ता।
बेटा नहीं था केवल मेरा,
दोस्त यार था वो तो मेरा।
कभी हूं ढूंढता दोस्त अपना,
और कभी ढूंढता बेटा अपना।
हक है मेरा रोने पर तो,
याद भी मिटा सकता नहीं।
मत दो मुझे सांत्वना लोगों,
मत छीनो तुम हक़ ये मेरा।
घाव लगा है इतना गहरा,
शब्दों की मलहम भर सकती नहीं।
मत आना लोगो पास मेरे,
अच्छा नहीं इन्सान हूं मैं।
बच कर चलना परछाई से मेरी,
बदनसीबी का दूसरा नाम हूं मैं।
कभी कभी लगता है ऐसे,
जैसे आसमान से देख ख़ुदा।
हंसता हो वो ज़ोर ज़ोर से,
देख मुझे रोता हुआ।
जानता हूं अपनी जिम्मेदारी,
तभी तो ज़िंदा बचा हूं मैं।
दर्द होती हर दम सीने में,
नहीं हर पल छिपा सकता हूं मैं।
दर्द ही दर्द है मेरे पास,
खाली करने को मेरा सीना।
शब्दों में उड़ेलता रहता हूं मैं,
कभी ढूंढता दोस्त अपना,
कभी बेटा ढूंढता हूं मैं।
नही आयेगा मुझे नज़र अब,
फिर क्यों ढूंढता रहता हूं मैं।
पूछा मैंने खुद से जब,
जवाब मिला अन्दर से तब।
ख़ुदा भी तो नहीं आता नज़र,
फिर क्यों ढूंढते रहते हम सब।
हैं ढूंढते रहते हम सब ,
खो जाये कुछ अपना जब।
बस वैसे ही मैं रहता ढूंढता,
हर पल ढूंढता रहता हूं मैं।
कभी ढूंढता दोस्त अपना,
और कभी बेटा ढूंढता हूं मैं।
कैसे कब सम्भलूंगा मैं,
मैं खुद जानता ही नहीं।
भरोसा था मुझे जिस खुदा पे,
वो मुझे पहचानता ही नहीं।
यां नज़र है उसकी आंसू से धुंधली,
यां पहचान में नहीं आता हूं मैं।
कभी ढूंढता हूं दोस्त अपना,
कभी बेटा ढूंढता हूं मैं।
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