बहुत भोला है इन्सान.. Written by वासल देवेन्द्र..
D.K.Vasal
बहुत भोला है इन्सान,
नही निकला,
रोशनी की तलाश में।
जब तक,
अंघेरा नां मिला राह में।
मासूम बहुत है इन्सान,
कद्र बहुत कुदरत की करता है।
सूरज को चढ़ाता जल,
धरती को करता नमन।
रहता हवाओं के रुख में,
पुकारता नदियों को मां हर पल।
नदियां जो तोड़ें संयम,
खुद को दोष देता है।
आंधियों को भी अक्सर,
हवाओं नाम देता है।
उगले आग
यां बरसाये ओले।
वो कहां आसमां को,
दोष देता है।
सागर तोड़ कर मर्यादा,
मिला दें ख़ाक में हजारों।
जैसे हों रेत में लिखे वो नाम,
कहां कहता है वो,
सागर को शैतान।
पहाड़ गिरे यां हिले धरती,
आये भुकंप यां टूटे बांध।
नही कहता वो कुदरत की गलती,
जानवर मरें यां मरें इन्सान।
हवायें उजाड़ दें पेड़ का घर,
बिखर जायें जब पत्ते सब।
नही हवाओं से बदलता रिश्ता,
रहता खामोश सब सह कर।
कहां बदलता है रिश्ता,
ज़ालिम और मज़लूम का।
ज़ालिम हवाओं के आगे,
क्या ज़ोर चले,
धरती में गड़े पेड़ का।
ख़ुदा दे सांसें गिन गिन कर,
कहां हिसाब मांगता है।
खुदा को भी बस,
बिना सवाल मानता है।
अजीब इन्सान हैं,
वासल देवेन्द्र।
खो जाये जो कुछ,
दोष कर्मों को देता है
मिल जाये जो कुछ,
शुक्रिया खुदा का करता है।
बहुत मासूम है इन्सान,
उजाला जो करे सूरज,
शुक्रिया अदा करता है।
पर रात अपनी,
दीये से ही रोशन करता है।
कहां वो सूरज से,
सवाल करता है।
अकेले पन को सुकून कहता है,
पत्थर के बुत को भी ख़ुदा कहता है।
रात के अंधेरे को भूल कर,
चमकती हुई च़ीज को चांद कहता है।
अपने जो चले गए छोड़ कर,
उन्हें चमकते सितारे कहता है।
बहुत भोला है इन्सान,
रोशनी भी करने से पहले।
अंधेरे का इन्तजार करता है।
मेहनत से मिले को भी,
मुकद्दर का दिया कहता है।
नदियां तोड़ें संयम,
यां सागर तोड़े मर्यादा,
कहां कुछ कहता है।
कभी चुप रह कर,
कभी रो कर,
बस.. सहता है।
बहुत भोला है इन्सान,
करने से पहले रोशनी,
अंधेरों का इन्तजार करता है।
ख़ुदा को भी बस यूं ही मानता है
कहां कोई सवाल करता है।
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