आंख मिचौली….. Written by वासल देवेन्द्र…D.K. Vasal.
आंख मिचौली ।
खेलता रहता है मेरा खुदा भी,
मुझसे आंख मिचौली।
है उसका ये खेल भी निराला,
मैं ढूंढता हूं तो वो,
छिप जाता है।
मैं छिप जाऊं तो वो ,
नज़र नही आता।
मैं कुछ भी नही ,
पर उसकी नज़र में हूं ।
वो सब जगह है ,
फिर भी नज़र नही आता।
यां तो वो खेल खेलता है,
इक तरफा,
यां मुझे खेलना नही आता।
सुना है वो तो एक,
महबूबा की तरहां ,
दिल में रहता है।
झुकायो ज़रा गर्दन,
तो नज़र आता है।
मेरी गर्दन तो कभी,
झुकती ही नही।
शायद इसीलिए वो ,
नज़र नही आता।
सुना है झुकता है वो ,
अपने भक्तों के आगे,
मुझे खुद मुझमें,
भक्त नज़र नही आता,
शायद इसीलिए वो,
मुझे नज़र नही आता।
चलो ढूंढता हूं उसे ,
घरती आकाश और पाताल में।
पर सुना है वो ,
बिना मन की आंख के ,
नज़र नहीं आता।
अब याद आता है,
मां कहती थी,
मन लगा कर पढ़।
जो भी करता है
मन लगा के कर,
अब समझा।
पर देर से समझा,
बिना मन लगाये,
खुदा नज़र नही आता।
कहां आता है,
वासल देवेन्द्र का,
मन काबू में।
काम, क्रोघ, लोभ,
और मोह में ऐसा उलझा है।
कि उसे खुद के सिवा,
कुछ नज़र नही आता।
इसीलिए तो वो खुदा,
नज़र नही आता।
वो सब जगह है,
फिर भी नज़र नही आता।
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