आग (एक भयानक एहसास यां विरोधाभास)
written by वासल देवेन्द्र…D.K.VASAL
आग।
आग । आग । आग …कहां…,
कैसे…किधर , किस ओर।
घबराई हुई नज़र ,
देखे चारों ओर,
हुआ लाल पीला बसंती गगन,
हुईं हो जैसे भोर।
गर्म हवा और काला नाग,
दिखता था सब ओर।
था आग का सन्नाटा ,
बाकी सब शोर ही शोर।
डरा – सहमा था हर कोई,
देख अग्नि का विकराल रूप।
होता है मुश्किल झेलना,
मौसम की तेज धूप,
स्वाभाविक था डर के कांपना,
देख अग्नि का ये रुप।
हां, ये आग है।
हो लगी पेट में , घर में ,
समाज में यां देश में,
बुझाना तुरंत है इसका लाज़मी।
पर ज़रा रुको, सोचो,
था कसूर आग का।
यां उसका,
यां जिसने लगाईं आग।
मांगते हैं पड़ोसी से,
जलाने को चूल्हा।
है क्या माचिस यां दियासलाई,
कौन कहता है ,
है ज़रूरत मुझे आग की।
लगानी पड़ती है चूल्हे में ,
बुझाने को पेट की।
है बहुत बदनाम,
पर है बहुत ये काम की।
करवाती है हवन,
और दाह संस्कार भी।
है निरन्तर जरुरत,
हमें आग की।
जलाती है खुद को,
करने को रोशनी,
जलती है धीरे धीरे
लपटों में खामोश सी।
क्या सुनी है कभी,
दर्द भरी,निशब्द चीख
उस आग की।
सुनते हैं हर रोज़,
पाना है कुछ तो,
है ज़रूरत जिगर में,
आग की।
जलाना है दीये से दीया,
तो है ज़रूरत दीये में,
आग की,
पर कहां कहते सुना है किसी को,
है ज़रूरत मुझे आग की।
हां, सुना है कहते,
है ज़रूरत मुझे आग की।
बस तभी जब लगी हो,
तलब धुम्रपान की।
मुश्किल नही है समझना,
है कहना वासल देवेन्द्र का।
हो बात आग की यां इन्सान की,
हो चीज़ कितनी भी जरूरी,
यां काम की।
कदर नही होती,
कभी बदनाम की।
कहती है ये आग,
जला के खुद को बार बार।
हवन हो यां दाह संस्कार,
है ज़रूरत मुझे भी नाम की।
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Dear DKV
JAI SHRI KRISHNA
POETRY ON” AAG” WELL DEFINED 👌
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