कभी कभी… Written by. वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
कभी कभी।
कभी कभी सोचता हूं,
है अजीब जिंदगी उसकी।
ना हो हवा तो नां जले चिराग
हो तेज़ हवा तो नां जले चिराग
वो हवा,
जो दोस्त है उसकी,
है वो ही दुश्मन भी उसकी।
वो ख़ुदा,
जो जान है हमारी,
वो ही लेता है जान हमारी।
जब जी में आया जला दी,
जब जी में आया बुझा दी।
वो नाज़ुक सी ‘लौ ‘,
हो मेरी यां तुम्हारी।
कभी कभी लगता है,
है अजीब रिश्ता।
उस ख़ुदा से,
जो हम पुकारें,
तो वो आता नहीं।
जो वो पुकारे,
तो कोई रुक पाता नहीं।
कभी कभी सोचता हूं,
नां ख़ुदा बताता कुछ हमें।
नां जवाब देता कोई हमें,
‘ख़ुद’ से बना ‘ ख़ुदा ‘ हमारा,
फिर भी अजनबी सा रिश्ता हमारा।
कभी कभी सोचता है,
वासल देवेन्द्र।
अजीब ‘श’ है,
ये सांस भी।
जब आती है,
हम रोक पाते नही।
जब जाती है,
हम रोक पाते नही।
कभी कभी लगता है,
क्यों आये हम जहां में।
बन के एक पहेली,
रुह आई हमारी अकेली,
लौट जायेगी अब अकेली।
कभी कभी लगता है,
ये वहम है और कुछ भी नही।
हो जैसे सब हमारा,
पर सच में हमारा कुछ भी नहीं।
कभी कभी लगता है,
थोड़ी धरती,थोड़ा आकाश,
थोड़ी आग थोड़ा पानी
है जुड़ी इसी से हमारी कहानी।
मिल जायेगी इसी में,
जान हमारी।
कभी कभी सोचता हूं,
मैं करके देखूं कोशिश दुबारा।
है यकीन मुझको पूरा,
मैं ढूंढ ही लूंगा दर तुम्हारा।
नां बचेगी फिर पहेली कोई,
मिल गया अगर जो घर तुम्हारा।
***”