तारीफ के पुल पर।.. Written by वासल देवेन्द्र.. D.K. Vasal.
तारीफ के पुल पर।
चलो ज़रा सम्भल कर,
तारीफ़ के पुल पर।
बहती है नदी मतलब की,
पुल के तल पर।
फिसल ना जाना तुम कहीं, ,
तुम रहो खबरदार।
नही बचायेगा कोई,
फिसले जो एक बार।
हैं वक़्त बहुत नाज़ुक,
है हवा भी बहुत तेज।
यहां उड़ रहे हैं रिश्ते,
ले ले कर नया वेश।
बदल रहा है मौसम, ,
फिरो ना भागे भागे।
क्यों चल रहे हो तुम, ,
हवाओं से आगे।
आती थी पहले बरसात,
हो आई महबूब जैसे।
अब करती है बर्ताव, ,
वो हम से गैरों जैसे।
होते थे पहले रिश्ते,
साफ पानी की तरहां।
अब है सिर्फ धोखा,
इक दलदल की तरहां।
पूछते हैं वो मुझसे,
है नहीं यकीं मेरा।
कहता है वासल देवेन्द्र,
अब सब कुछ बदल गया।
बच गया अब बस, ,
कुछ तेरा कुछ मेरा
रहते थे जिन्दा रिश्ते।
नई सांस की तरहां,
मिट जाते हैं अब रिश्ते,
गुज़री सांस की तरहां।
रहो जागते यहां, ,
आधे सोये की तरहां।
रहो आधे जिंदा, ,
आधे मुर्दे की तरहां।
चलो तारीफ के पुल पर,
अपाहिज की तरहां।
मिल जाये शायद कोई,
बैसाखी की तरहां।
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very nice !
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Good one. Practical people take praise very cautiously in a limited way
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