तन्हाई.. जहां सबके घर शीशे के हैं।
Written by वासल देवेन्द्र।..D.K.VASAL
तन्हाई… जहां सबके घर शीशे के हैं।
सोचता है वासल देवेन्द्र,
क्यों नां मैं?
ऐसी बस्ती में बस जाऊं,
जहां बस अजनबी ही बस्ते हों।
नां कोई गिला नां शिकवे हों।
नां उम्मीद कोई नां टूटने का डर,
जहां सबके घर शीशे के हों।
जहां अपना नां हो कोई मेरा,
नां समझे कोई दर्द मेरा।
नां पूछे कोई हाल मेरा,
नां झूठी दे मुस्कान मुझे।
नां कहे कोई दीवाना अब,
नां सियाना कहे कोई मुझे।
जहां भीड़ तो हो लोगों की पर,
सब हों अपनी तन्हाई में।
नां दुःख में साथ हो कोई,
नां साथ दे मेरी तन्हाई में।
यूं भी तो संसार में अब,
नां गलियां हैं नां कूचे हैं।
मकान ही बच गये हैं बस,
हर घर में बस दीवारें हैं।
तस्वीरों से मोहब्बत है,
ज़िंदा इन्सानों से प्यार नहीं।
कुछ तेरा है, कुछ मेरा है,
हम सब का यहां,
अब कुछ भी नहीं।
यहां धूप भी सब की अपनी है,
और छाया भी अपनी अपनी।
नां छत किसी की सांझी है,
नां एक ही सब का मांझी है।
भीड़ ही भीड़ बची है बस,
अंदर सबके तन्हाई है।
मजबूरी के सब रिश्ते हैं,
दूरी से बस यादें हैं।
शोरो गुल में रहते हैं,
सन्नाटे से शिकायतें हैं।
हालात भी हमने बदले हैं,
हालात नें हमको बदला नहीं।
ज़ुबान से सारे अपने हैं,
पर दिल से अपना कोई नहीं।
फांसले सब में इतने हैं,
कहता है वासल देवेन्द्र।
मेरे आंसू बस मेरे हैं,
तेरे ज़ख़्म बस तेरे हैं।
मेरा दर्द बस मेरा है,
तेरी पीड़ा अब तेरी है।
फिर क्यों नां बस जाऊं वहां,
जहां सब अजनबी रहते हैं।
नां उम्मीद कोई नां टूटने का डर,
जहां सबके घर शीशे के हैं।
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One of the best of poems written by you in past . Beautifully worded
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Thank you Bhargav Ji
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