उम्मीद… Written by वासल देवेन्द्र।
D.K.VASAL
उम्मीद।
हर रिश्ते में,
एक उम्मीद बसी रहती है।
जब तक नां आज़मायो,
ज़िंदा रहती है।
वो डोर,
जिसे उम्मीद कहते हैं।
बहत नाज़ुक होती है,
इस्तेमाल से पहले ही,
टूट जाती है।
यूं ही नहीं कुदरत ने,
पतझड़ को बनाया।
वर्ना कैसे पता चलता,
कौन अपना कौन पराया।
पतझड़ में ही,
रिश्तों की परख होती है।
वर्ना बरसात में तो,
हर पत्ती ही हरी होती है।
रिश्ते दूर के हों यां करीब के,
उससे क्या फर्क पड़ता है।
जो वक्त पे काम आये,
समझो वही एक रिश्ता है।
नां जाने कहां गए,
जो हुआ करते थे रिश्ते तब।
झूठी हंसी, झूठे आंसू, फरेब नज़र,
बस मतलब के रह गये सब।
समझदार हो गया है हर कोई,
हाथ मिलाते ही भांप लेता है।
हैसियत दूसरे की,
तय कर लेता है फिर तभी,
उम्र उससे रिश्ते की।
वक्त पड़ने पर समझोगे,
क्या कहता है वासल देवेन्द्र।
रिश्ते अब कुछ नहीं,
इक धोखा है बस।
ये वो चिराग है,
जो जलता नहीं,
दिखता है बस।
तेल के रंग का,
पानी है इसमें।
बादल के रंग की,
बाटी है बस।
एक खुबसूरत झूठ है ये,
इक धोखे की नुमाइश है बस।
तुम मानोगे मेरी बात तब,
खुद खायोगे ठोकर जब।
हर रिश्ते में,
एक उम्मीद बसी रहती है।
जब तक नां आज़मायो,
ज़िंदा रहती है।
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Beautiful lines…
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Good one.
Well compared with with autumn and rains
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