चांद फिर निकला।…. Written by वासल देवेन्द्र..
D.k. Vasal
चांद फिर निकला।
चांद फिर निकला ,
सुना है रात हो गई।
किसने किसको कहा,
नही मालूम।
क्यों करूं मालूम,
मेरी तो दिन में ही
रात हो गई।
सुना है,
जब साफ हो आसमान
तो रौशन करते हैं,
सितारे भी आसमान।
मेरा तो ग्रहण में है आफ़ताब (सूर्य)
क्या करेंगे रौशन,
ये टिमटिमाते सितारे,
ये हल्के फुल्के जुगनू,
कितना भी आसमान हो साफ।
जब ग्रहण में हो आफ़ताब ( सूर्य )।
जानता हूं क्या कहता है,
सूर्य का ये ग्रहण।
ओ वासल देवेन्द्र तूं सुन,
वक्त कर सकता है,
प्रकृति के हर रंग का हनन।
क्या हुआ,
जो जीवन तेरा हुआ बेरंग।
कहां पूछता है वो,
चांद- सूरज से,
लगाने से पहले ग्रहण।
रोता है चांद भी,
हर रात।
देख कर अपना दाग़,
है नहीं कोई ज़िंदगी बिना दाग।
पत्तों पर गिरी ओस को,
देख समझ गया वासल देवेन्द्र।
रात फिर रोया है चांद,
देख कर अपना दाग़।
नही कोई ज़िंदगी,
बिना छोटे यां बड़े दाग।
फर्क सिर्फ इतना है,
किसी की दुश्मन है हवा,
और किसी की दुश्मन है आग।
शायद ये काली रात,
कुछ और कहना चाहती है मुझे।
चांद निकले यां ना निकले
सितारे टिमटिमायें,
यां नां टिमटिमायें,
सूरज निकलेगा ज़रूर
तोड़ कर ग्रहण के सब साये।
शायद वो कहना चाहता है
ओ वासल देवेन्द्र।
ज़िंदा रहना होगा तुझे,
अब आंसूओं के साथ।
सूरज निकलता है जैसे,
बरसते बादलों के साथ।
याद रख,
इन्द्रधनुष भी,
आता है तभी।
तुझे तो दिखती है,
लाडले की सूरत,
इन्द्रधनुष में भी।
जैसे हो बैठा वो,
हरि के मोर मुकुट में ही।
चांद फिर निकला,
सुना है चांदनी हो गई।
मेरी तो बिना चांद ही
रात हो गई।
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