हां, कुदरत सब की होती है। Written by वासल देवेन्द्र।…D.K.Vasal
हां
कुदरत सब की होती है,
ध्यान से देखा,
मैंने बरसात को,
बराबर बरसती है।
पर कहां सब के सर पर,
छत होती है।
आंधी की जननी भी,
हवा होती है।
बराबर चलती है,
उड़ जाये चाहे गरीब की छत,
कहां फर्क करती है।
हां
कुदरत सब की होती है,
सूरज भी कहां फर्क करता है।
बिना छत की घर पर भी,
बराबर आग उगलता है।
चांदनी भी वही मिज़ाज रखती है,
बिना उजाले वाले घर पर भी
पूरी अमावस करती है।
हां,
कुदरत सब की होती है,
आसमान भी कहां फर्क करता है।
बराबर सब को दिखता है,
किसी को आकाश,
किसी को ‘काश’ मिलता है।
फूल भी कहां फर्क करते हैं,
चढ़ायो ख़ुदा पर यां कब्र पर,
बराबर खुशबू देते हैं।
हां
कुदरत सब की होती है,
ज़मीन सब को मिलती है।
बने घर यां घऱौंदा,
कहां फर्क करती है।
राजा हो यां रंक
आखिर में छे ग़ज ही मिलती है।
हां,
कुदरत सब की होती है,
रात भी बराबर अंधेरा देती है।
मिले गुनाह को नकाब,
यां शरीफों को डर
कहां फर्क करती है।
धरती भी सबको मिलती है,
हों पांव में छाले,
यां गलीचा-ए-मखमल
कहां फर्क करती है।
हां
कुदरत सब की होती है,
पानी भी कहां फर्क करता है।
गंदा हो यां साफ,
बराबर प्यास बुझाता है।
हां
कुदरत सब की होती है,
ज़िंदगी सब को देती है।
कहता है वासल देवेन्द्र।
पर सांसें अपनी अपनी होती हैं
पर सांसें अपनी अपनी होती हैं।
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