चलती नदी में ठहरा पानी। Written by वासल देवेन्द्र…
D.K.VASAL
चलती नदी में ठहरा पानी।
वक्त गुज़रता ही नहीं,
और ठहरता भी नहीं।
नां जाने ज़िन्दगी,
किस दौर में ले आई मुझे।
पहले चलता था मैं,
वक्त से आगे।
अब वक्त मेरे साथ,
चलता ही नहीं।
अजीब सा हो गया है सब कुछ,
कुछ भी जाना पहचाना सा,
लगता ही नहीं।
सांस तो ले रहा हूं मगर,
हूं ज़िंदा यां मुर्दा,
समझ पाता ही नहीं।
हर एक लम्हा,
जैसे एक राज़ है।
वो कुछ कहता नहीं,
मैं समझ पाता नहीं।
ऐसा लगता है जैसे,
चलती नदी में,
ठहरा पानी हूं मैं।
रुक सकता नहीं,
बह सकता नहीं।
गीली लकड़ी की तरहां,
ख़ुदा ने सुलगाया है।
नां पूरा जलाया है,
नां पूरा बुझाया है।
अच्छे बुरे सब दौर,
देखे हैं वासल देवेन्द्र ने।
पर ये दौर,
समझ आता ही नहीं।
पहले आती थी,
दिल के हाल पे हंसी।
अब हंसने को दिल,
चाहता ही नहीं।
वक्त ऐसा आया,
सब कुछ भुला कर रख दिया।
कुछ याद करने का,
दिल करता ही नही,
घबरा जाता हूं, कर याद,
अपने ही ठहाकों को।
वो सपना था यां ये सपना है,
कुछ समझ पाता ही नहीं।
वक्त में राज़ छिपे रहते हैं,
सुनने में अच्छा लगता है।
खुल जाये जब कोई राज़,
तो जहां रुका सा लगता है।
दिन को रात और,
रात को दिन समझता हूं।
आधी रात को उठकर,
अक्सर रोता रहता हूं।
अब सूरज की इन्तजार,
नहीं करता मैं।
अंधेरे से ही सवाल,
करने लगता हूं।
गुज़र जायेगा ये दौर भी,
मेरी जिंदगी के साथ।
फूंक दी जवानी पूरी,
पर कुछ भी नां आया हाथ।
जिसके भरोसे पर हुआ बूढ़ा,
उस लाडले का भी छूटा साथ।
ऐसा लगता है जैसे
चलती नदी में।
ठहरा पानी हूं मैं।
रुक सकता नहीं,
बह सकता नहीं।
*****
Sir, this is very very emotional. Superb poem
LikeLike
Thank you
LikeLike
Sir, this is very very emotional. Superb poem
LikeLike
Thank you
LikeLike
Quite touching to heart. Few events change the outlook of life for ever
LikeLike
Thank you
LikeLike