किरदार.. अब मैंने कहना छोड़ा।… Written by वासल देवेन्द्र।… D.K.Vasal
किरदार…
संगत का असर होता है,
अब मैंने कहना छोड़ा।
फूलों के संग रह कर भी,
कब कांटों ने चुभना छोड़ा।
बात संगत की नहीं,
किरदार की हैं।
कहां फूलों ने,
संग कांटों के,
महकना छोड़ा।
सांप लिपटता रहता है,
चंदन के पेड़ पर।
कहां छोड़ता है,
ज़हर उगलना।
चंदन भी,
बनाए रखता है,
किरदार अपना।
नहीं छोड़ता,
खुशबू देना।
हर जीव, हर जन्तु,
अपना किरदार,
बनाये रखता है।
बस एक इन्सान,
ही है जो,
किरदार को गिरगिट
बनाए रखता है।
घमंड है लोहे को,
अपनी मजबूती पर।
तभी तो लोहा,
लोहा काटने के,
काम ही आता है।
झूकता है सर,
वासल देवेन्द्र का।
उस पारस के किरदार पर,
जो लोहे को भी,
सोना बना देता है।
बरसात की बूंद तो,
पानी ही लाती है।
किरदार देखो उस सीप का,
जो उसे मोती बनाती है।
चकोर को देखो,
टकटकी बांधे।
है रहता देखता,
आकाश को।
बनाए अपने किरदार को,
नहीं पियेगा पानी कोई,
बस बूंद बरसात को।
हर ‘श’ का,
एक किरदार होता है।
बस एक इन्सान ही है जो,
नांशुक्रिया, नां कद्रदान,
नां उसका कोई
किरदार होता है।
लिबास कैसा भी हो,
किरदार नहीं छिपा सकता।
दर्द था ही नहीं उसके सीने में,
तो वो क्या बयान करता।
संगत का असर होता है
अब मैंने कहना छोड़ा।
फूलों के संग रह कर भी
कहां कांटों ने चुभना छोड़ा।
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