ज़ुबान। Written by वासल देवेन्द्र।….D.K.VASAL
ज़ुबान।
बस रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं,
वर्ना मुंह में ज़ुबान हम भी रखते हैं।
तुम्हारी नादानगी शायद हम से ज़्यादा हैं,
इसलिए ज़ुबान बन्द रखते हैं।
होती तो है हर किसी के पास,
पर अक्लमंद संभाल कर रखते हैं।
होती है आदत से चंचल बहुत,
सयाने लोग अंकुश लगा के रखते हैं।
ज़ुबान के बदले चल जाती है ज़ुबान,
जो संभालते हैं चंचलता उसकी।
वो ही रिश्ते संभाल के रखते हैं
यूं तो वो भी मुंह में ज़ुबान रखते हैं।
सोच हो अच्छी तो,
ज़ुबान मीठे अल्फ़ाज़ देती है ।
सोच हो मैली तो
ज़ुबान ज़हर उगल देती है।
ज़ुबान तो बस सोच को,
अल्फ़ाज़ देती है।
नज़र वो देखती है,
जो दिखाया जाता है।
कान वो सुनते हैं,
जो सुनाया जाता है।
ज़ुबान वो कहती हैं,
जो बतलाया जाता है।
ज़ुबान खुद ये नसीहत देती है
दांतों में रह कर भी,
दांतों से बची रहती है।
कहता है वासल देवेन्द्र
जरुरी नहीं,
ज़ुबान के बदले ज़ुबान चलाना।
रिश्तों की अहमियत तो,
ज़ुबान से बड़ी होती है।
मुंह में ज़ुबान होने से,
कुछ नही होता।
जो रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं
वो ज़ुबान को बेजुबान रखते हैं।
सच की फितरत है कड़वा होना,
सच के कड़वे बोल होते हैं।
जो मिठास से सच कहते हैं,
वो यकीनन सयाने होते हैं।
बस रिश्तों का लिहाज़ रखते हैं।
इसीलिए ज़ुबान बंद रखते हैं।
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इस कवीता की शैली अन्य कविताओं से भिन्न है ा बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की गई है ज़ुबान की अहमियत
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Thank you Bhargav Ji.
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