बोली की होली।
WRITTEN BY D.K.VASAL..वासल देवेन्द्र।
बोली की होली
आओ खेलें हम सब होली,
इस बार खेलें, बोली की होली।
होली है रंगों की टोली,
हों जहां रंग होती वहां होली।
चलो खेलें बोली की होली,
थोड़ा हटकर खेलें इस बार की होली।
हम ध्यान नहीं करते पर दिन भर,
हम हर दम खेलते रहते होली।
गुस्से में चेहरा हो लाल पीला,
मुस्कुराने से होता मौसम रंगीला।
शरमाओ तो हों गाल गुलाबी,
बदल देती है चेहरे के रंग,
हम सब की ये अपनी बोली।
बोलें अगर हम मीठी बोली,
छोड़ेगी वो रंग सतरंगी।
हर पल होगी हमारी होली,
कुदरत के रंगों की होली,
खेली जो गालों ने होली।
नही होता रंग सफेद होली में,
हो चेहरा सफेद बस घबराहट में।
नां बोलो तुम कभी ऐसी बोली,
जो करे सफेद चेहरे की होली।
खेलो मीठे वचनों की होली,
रंग दो सब का तन मन ऐसे।
कुदरत ने बांटे रंग जैसे,
जैसे हो फूलों की क्यारी।
शब्दों की चाशनी से भरे गुब्बारे,
आज नां छोड़ो किसी को भी तुम।
बिना गिनें मारो गुब्बारे,
मारने वाला नां शरमाये,
खाने वाला मस्त हो जाये।
रसना (ज़ुबान /जीवा ) अपनी को मीठी बनायो,
मीठी वाणी की पिचकारी चलाओ।
रंग बिरंगे रंग बरसाओ,
मीठे शब्दों के बान चलायो,
खुद खाओ औरों को खिलायो।
आओ मिलजुल खेलें होली,
हट कर थोड़ा खेलें होली,
आज खेलें बोली की होली।
है वासल देवेन्द्र का कहना,
होली तो है एक बहाना।
है हमको रूठों को मनाना,
कौन रूठता है गैरों से?
तुम रूठे जो हमें अपना माना।
चलो रखें हम मान होली का,
तुम अब कर दो माफ़ मुझको।
मैं भी भूल जाऊं हर शिकवा,
इस बार खेलें ये मौखिक होली।
रंगों में भीगे शब्दों की होली,
आओ खेलें बोली की होली।
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