अनकहा।……Written by वासल देवेन्द्र। D.K.Vasal
अनकहा।
ओ जिंदगी,
अभी बहुत कुछ,
अनकहा है पास मेरे।
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब अंधेरों में,
साया भी,
कहां बचा है पास मेरे।
वो चिराग था मेरी आंख का,
वो नूर था मेरी रुह का।
कलेजे का टुकड़ा था मेरा,
एक अजीब सी आंधी ने,
लूट लिया जहां मेरा।
कभी जिंदगी से मत कहना,
नया कुछ सिखाने को।
कीमत बहुत मांगती है,
वो हर सबक सिखाने को।
जिंदगी,
कड़वा सच सिखाती है बस।
पर सब्र कहां से लाऊं,
वो सब सीखने को अब।
हर उजड़े हुये पेड़ का,
पतझड़ ही नहीं दोषी।
कुछ बाग उजड़ जाते हैं,
बहारों में कभी कभी।
शिकायत किससे करूं,
कोई सुनता ही नहीं।
नां जाने कौन बैठा है,
आसमानों के पार।
हर दुआ लौट आती है,
कुछ दूर जाने के बाद।
किनारे पर बैठ कर,
अंदाज़ नहीं होता।
दबाव कितना है,
सागर के गर्भ पर।
जिंदगी,
पहले से ही पहेली थी।
अब और उलझन बन गई,
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब तो मरहम ही,
ख़जर बन गई।
अब सोचता है वासल देवेन्द्र,
चुप रहूं, कुछ नां कहूं,
नां खुद से,
नां किसी और से,
रहने दूं सब अनकहा,
अब अनकहा ही अंत में।
ओ जि़दगी,
अभी बहुत कुछ,
अनकहा है पास मेरे।
किससे कहूं, कैसे कहूं,
अब अंधेरों में,
साया भी,
कहां बचा है पास मेरे।
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Touched by the words
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Thank you
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Very touching
This pain is unbearable and can be imagined only by sufferers 😭
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Thank you
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