दिल चाहता है।Written by वासल देवेन्द्र…..D.K.VASAL
दिल चाहता है।
दिल चाहता कुछ और है,
पर होता कुछ और है।
मुझे शक है, मुझे शक है,
कि मेरी चाहत,
और होने के दरमिंयान।
खड़ा वो ख़ुदा है।
दिल तो नादान है,
कहां समझता है।
ख़ुदा को,
अपना समझकर।
उसकी हर “श” पर,
हक समझता है।
नहीं जानता वो नादान,
बंटवारा,
पैसों का हो,
यां दिल का।
अक्सर,
अपनों में होता है।
चाहत छोटी हो यां बड़ी,
क्या फर्क पड़ता है।
कहता है वासल देवेन्द्र,
मर्जी ख़ुदा की,
है यां नहीं,
बस ये फर्क पड़ता है।
कुछ चाहना जुर्म हैं क्या?
किसी को चाहना जुर्म हैं क्या?
अगर नहीं?
तो फिर क्यों,
हमारी चाहत में,
ख़ुदा की मर्जी नहीं होती।
मैं ख़फा नहीं हूं,
अपने ख़ुदा से।
पर हैरान हूं बहुत।
क्यों हमारी ख्वाहिश में,
उसकी रज़ा नहीं होती।
हम क्यों चाहेंगे कुछ,
उसकी मर्जी के विरुद्व।
वो क्यों नहीं बता देता,
जिसमें उसकी रज़ा,
नहीं होती।
हमारी चाहत पर भी,
अंकुश है उसका।
अजीब खुदाई है उसकी,
हमारी चाहत भी,
हमारी नहीं होती।
कुछ पारदर्शिता,
ख़ुदा को भी रखनी चाहिये।
हम बच्चे हैं उसके,
कोई गैर नहीं।
फिर क्यों है हमसे,
वो पर्दानशीं।
नां जानें क्यों,
हमारे हर फैसले पर,
शक है उसको।
शायद डरता है वो,
फैंसलों से हमारे।
शायद चाहता है वो,
ख़ुद से ज्यादा हमको।
दिल चाहता कुछ और है,
पर होता कुछ और है।
मुझे शक है, मुझे शक है,
कि मेरी चाहत,
और होने के दरमिंयान
खड़ा वो ख़ुदा है।
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