दीवाना ही सियाना निकला।
दीवाना ही सियाना निकला…. Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal.
दीवाना ही सियाना निकला।
अच्छे थे वो लोग,
जो मयखाने (शराबखाने) के दोस्त निकले।
छोड़ जिंदगी के लम्बे सफर को,
मयखाने से होकर निकले।
जब तक रहे मस्त रहे,
नां खुशी में रहे,
नां ग़म में रहे।
बस मयखाना उनमें,
और वो मयखाने में रहे।
समझदार थे वो,
जिंदगी का राज़ समझ गये।
यहां हर ग़म करे,
इन्तज़ार ख़ुशी का।
हर ख़ुशी के बाद
बस ग़म रहे।
समझता रहा दीवाना जिनको,
वो ज़हान खुद दीवाना निकला।
होश में रहकर बस ग़म मिला,
वो बेहोश दीवाना सियाना निकला।
हम समझे,
दीवाना पीता है मय को।
हम तो बस मूर्ख निकले,
कहां पीता दीवाना मय को,
मय पीती है उसके ग़म को।
अजीब दस्तूर है जिंदगी का,
यहां ग़म में पूरा ग़म मिले।
ख़ुशी में ख़ुशी कम मिले,
बराबर कहां ख़ुदा तोले।
हम कैसे किसी को मापें तोलें,
है कहता वासल देवेन्द्र।
यहां सियाना ही दीवाना निकले,
दीवाना ही सियाना निकले।
अच्छे थे वो लोग,
जो मयखाने के दोस्त निकले।
छोड़ जिंदगी के लम्बे सफर को,
मयखाने से होकर निकले।
ख़ुदा समझ गया इरादे मेरे,
वो भी बहुत सियाना निकला।
पिला हरि नाम की मय मुझको,
कर दिया उसने दीवाना मुझे।
फिर कान में चुपके से बोला वो,
तूं सच कहता है वासल देवेन्द्र,
यहां दीवाना ही सियाना निकले।
यहां दीवाना ही सियाना निकले।।
थोड़ा भीतर झांक के देख,
थोड़ा और तूं पी हरि नाम।
तूं पीता रह हरि नाम की मय,
जब तक नां भीतर तेरे से,
हरि नाम का दीवाना निकले।
ध्यान से भीतर झांक के देख,
थोड़ा और तूं झांक के देख।
तेरे भीतर ही अब तो,
हरि नाम का मयखाना निकले।
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बहुत सुंदर।
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धन्यवाद।
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