“जग “
ज से जन्म,
ग से गति. Written by वासल देवेन्द्र..D.K. Vasal.
” जग “
ज से जन्म , ग से गति।
खूब जपा हरि को मैंने,
जीवा से जपा और मुख से जपा।
कंठ से नीचे, शायद उतरा नहीं मैं,
मन से शायद नहीं जपा।
मां कहती थी हर पल मुझको,
मन से जपना होगा हर पल,
पाना है जो तुझे हरि को।
कहां मानते हैं हम मां की,
भूल जाते हैं हम अक्सर।
मां को रहता सब याद ज़ुबानी,
मां के मुख हर शास्त्र की वाणी।
पूछा वासल देवेन्द्र ने मां से,
कैसे करुं मैं काबू मन को।
मन तो है हवा से चंचल,
उड़ता रहता हर पल वो तो।
मां बोली जो याद है मुझको,
तूं हर पल देख कृष्णा को ऐसे।
जैसे अर्जुन ने देखा पक्षी को,
मछली को देखा अर्जुन ने जैसे।
कोशिश करता हूं मैं अब से,
कर याद अपना मैं पहला गुरु।
मां ही तो होती है अपनी,
हम सब का पहला गुरु।
और भी वो कहती थी मुझको,
मन जीता तो जीता जग।
नही मिलेगा वो नटखट कृष्णा,
जब तक मन में रहेगा जग।
फिर वासल देवेन्द्र ने पूछा मां से,
कैसे छोड़ूं मैं ये जग।
याद मुझे है कहा था उसने,
तूं बस पकड़ कृष्णा का अंग।
बहुत दयालु है वो कृष्णा,
ले लेगा तुझे अपने संग।
पता नहीं चलेगा तुझको,
कब मन छूटा,
कब जग का संग।
तूजे देखना है बस कृष्णा,
हर घाव में हर भाव में।
हर प्राणी में हर जीव में,
हर सच में हर झूठ में।
हर धरती में हर आकाश में,
उपर हो यां हो पाताल में।
हर जल में और हर बूंद में,
अग्नि के धुंऐं – लपटों में।
काली घटा – चमकती बिजली में,
हर पत्ते पर – चमकती ओस में।
हवा में और, हर चलती सांस में,
वाणी के ज़हर और अमृत में।
जब देखेगा तूं ऐसे कृष्णा,
उतर आयेगा वो नटखट,
बिना आहट के तेरे मन में।
एक बार जो वो आकर बैठा,
फिर नहीं रहेगा जग तेरे मन में।
ध्यान लगाकर सोचा जब मैंने,
मैं तो सचमुच रह गया दंग।
आसान नहीं समझना जग को,
ज से जन्मे मिल गया जग,
ग से ग़ुज़रे मिल गई गति।
जग छूटे मिले हरि अनन्त।
जग छूटे मिले हरि अनन्त।।
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बहुत सुंदर! कभी न कभी कृष्ण जरूर मिलेंगे 🙏
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Thank you
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