हर काली अमावस के बाद।… Written by वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
हर काली अमावस के बाद।
बहुत कुछ,
सीखा ज़िन्दगी से।
पर कुदरत से,
सीखना रह गया।
नहीं होती,
सीखने की उम्र कोई।
चलो करता हूं,
कोशिश मैं भी वही।
सागर से,
संन्यासी बनना।
कुछ नां रखना,
अपने पास।
बादल को,
दे देना पानी।
इन्सानों को
घातू संसार।
घरती से,
सीखूं सहना मैं।
जैसे भी हों,
मेरे हालात।
लाखों होते,
दफन मां धरती में।
अपने सब,
धरती के लाल।
सूरज से सीख़ू,
फिर से उभरना।
डूब डूब कर,
हर एक शाम।
चांद से सीखूं,
लड़ना अंधेरों से।
कितनी भी,
काली हो रात।
हर बार,
फिर से,
निकलता है वो।
हर काली,
अमावस के बाद।
और वो ही तो,
कहता है मुझसे।
ओ वासल देवेन्द्र,
तूं नां हो उदास।
दिन जरुर,
निकलता है।
कितनी भी,
काली हो रात।
हवाओं से सीखूं,
चलना निरन्तर।
नां रुकना,
नां लेना पड़ाव।
दर्द भरे,
हालात में भी।
वो चलती,
ले खुशबू को साथ।
परिंदों से,
टूटे घर को बनाना।
बिना थके,
भरना उड़ान।
नहीं छोड़ते,
वो घर को बनाना।
जो बार बार,
तोड़े तुफ़ान।
नदियों से सीखूं,
पत्थर से लड़ना।
कभी नां छोड़ना,
अपनी आस।
प्यास कहां,
बुझानी है उनको।
बस मिलना,
सागर के साथ।
ओ कृष्णा,
देख कुदरत तेरी।
समझ गया मैं,
सारा सार।
सागर, सूरज,
चांद और धरती।
हवा,
नदियां,
परिंदे, आकाश।
हैं कहते,
मुझे बार-बार।
कुदरत जैसे,
चलती निरन्तर।
तुझे भी
चलना होगा निरन्तर।
उठ हो खड़ा
तूं चल निरन्तर।
ले कर,
हरि का नाम निरन्तर।
*****
It is absolutely different from all other poems. Well done. Keep it up
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Thank you.
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बहुत सुंदर |
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Thank you
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