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नां जाने क्यों।
Written by वासल देवेन्द्र ..
D.K.VASAL
नां जाने क्यों।
नां जाने क्यों,
सब कुछ,
अजीब सा दिखता है।
वक्त ख़ुद बेवक्त सा,
और जहां,
एक वहम सा दिखता है।
नां जाने क्यों,
दर्द ख़ुद दर्द में,
और सूरज,
ख़ुद को जलाता दिखता है।
नां जाने क्यों,
लब मुस्कुराने से।
और मुस्कुराहट,
लबों से डरती है।
नां जाने क्यों ,
जिंदगी जीने से,
और मौत,
मरने से डरती है।
नां जाने क्यों,
फूल महक नहीं देते,
और कांटे,
चुभने से डरते हैं।
आकाश,झुका सा,
और सितारे,
चमकने से डरते हैं।
नां जाने क्यों ,
आंधियां, थकी सी,
और तुफ़ान,
हवा से डरे लगते हैं।
हर लम्हा सहमा हुआ,
और वक्त,
रुका सा दिखता है।
नां जाने क्यों,
घड़ी की सुईयां,
वक्त नहीं दिखाती अब,
बस पलों को,
दफन करती दिखती हैं।
नां जाने क्यों,
रुह जिस्म में कैद,
मुजरिम सी दिखती है।
नां जाने क्यों,
सांसें रुक रुक कर,
रुकने से डरती हैं।
नां जाने क्यों,
ख़ुदा पर भरोसा,
टूटने से डरता है,
और ख़ुदा ख़ुद,
आंख मिलाने से डरता है।
नां जाने क्यों,
ख़ुदा की मूरत में,
ख़ुदा कम,
और पत्थर ज़्यादा दिखता है।
नां जाने क्यों,
आंखें जैसे, नींद से ख़फा,
और नींद,
आंखों से डरी दिखती है।
नां जाने क्यों,
मैं वासल देवेन्द्र
ख़ुद को समझ नहीं पाता,
सांस लेना ही,
हैं अगर ज़िंदगी,
तो ज़िंदा हूं मैं।
यूं तो ज़िंदगी,
मौत से बत्तर,
दिखती है।
नां जाने क्यों,
मैं क्यों,
जान नहीं पाता,
मेरी जान,
क्यों नहीं निकलती है।
सांस लेना ही,
अगर है जिंदगी,
तो फिर क्यों,
सांस रुक रुक कर,
चलती है,
नां जाने क्यों,
नां जाने क्यों,
सब कुछ,
अजीब सा दिखता है।
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