सपने में पहुंचा गोलोक (कृष्ण लोक).. Written by..वासल देवेन्द्र..D.K.Vasal
सपने में पहुंचा गोलोक,
प्यासे की जैसे,
बुझ गई प्यास,
ऐसे गीला हो गया कंठ।
हरि ने दिखा,
घर अपना सपने में,
कर दी मुझ पर,
कृपा अनन्त।
वैभव वैभव चारों ओर,
वैभव बस वैभव,
बस कुछ नां ओर।
चमक ऐसी आंखें चुंधियाई,
नां चांद नां सूरज नां कोई बिजली।
कर नां सकें हजार सूरज भी,
ऐसी वहां मैंने रोशनी पाई।
आलौकिक ऐसे, जैसे चमके दामिनी, (आकाश में बिजली)
हीरे मोती लगें सब फीके।
ऐसी माला हरि कंठ में पाई,
माला ऐसी हरि कंठ में पाई।
नाचे गाये हर कोई वहां,
सुंदर ऐसे जैसे मोर।
वहां जहां नां होती रात,
हर पल वहां बस भोर ही भोर।
रंग ही रंग थे चारों ओर,
नां लाल नां पीला नां नारंगी,
फिर भी था गोलोक सतरंगी।
स्वरमयी था सब वातावरण,
श्लोकों का था उच्चारण।
कानों में भर दे वो मधुमय,
बिना ढोलक बिना ताल मृदंग।
अनेक थे वहां पर एक ही रुप,
जैसे जल सब में गुलमिल जाये।
छोड़ कर वो अपना अस्तित्व,
ऐसे ही सब वहां थे कृष्णा
किसी में जैसे नां कोई तृष्णा।
जिसको भी देखूं लगे ईश्वर,
हर कोई था वहां पर कृष्णा।
हैरत की नज़रों से देखूं,
बड़ती जाये मेरी और भी तृष्णा।
उपर नीचे दांये बांये,
वहां तो बस कृष्णा ही कृष्णा।
अब बस हरि मिलने की आस,
नही वासल देवेन्द्र की,
और कोई आस।
दे कर अपने दर्शन मुझको,
अब हरि बुझायें मेरी प्यास।
आंख खुली तो देखा मैंने,
गोलोक जैसे बस गया भीतर।
हरि अनन्त हरि कृपा अनन्ता,
मैं हरि में हरि मेरे भीतर।
मैं हरि में हरि मेरे भीतर।
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