दिखती है धुंध ,हर तरफ,
हैं धुंआ ही धुआं ,हर तरफ।
हैं मौसम की शरारत,
इन्सान की बेगैरत,
यां सिर्फ नज़र का धोखा।
देखा है मैंने इन्सान वो,
था जो इन्सान की तरहां।
अब रहता है छिपा पर्दों में,
यां मद के आगोश में,
नही दिखता वासल देवेन्द्र को,
इन्सान कोई होश में।
हर चेहरा है धुंधला और पीला,
दबा ना जाने किस बोझ में।
रहता है हर दम घिरा,
अधजले रिश्तों के धुंए में।
ढूंढता है सुकून ऐसे, थे
जैसे सुई घास के ढेर में।
कब कैसे वो बदल गया,
उसे खुद पता नहीं चला।
उम्र से नही वो बोझ से दबता है,
हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा मरता है।
उसका तो अब आईना भी,
सच बोलने से डरता।
गुज़र गया जीवन सारा,
मकसद खोजने में मारा मारा।
हो ने लगा है यकीन उसको,
अब वो लोट जायेगा।
एक धुंध से आया था,
और धुंआ बन जायेगा।